क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् ।
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ।।१४२।।
श्लोकार्थ : — [दुष्करतरैः ] कोई जीव तो अति दुष्क र और [मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्षसे पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मोंके द्वारा [स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [क्लिश्यन्तां ] क्लेेश पाते हैं तो पाओ [च ] और [परे ] अन्य कोई जीव [महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्षके सन्मुख अर्थात् क थंचित् जिनाज्ञामेंं कथित) महाव्रत और तपके भारसे [चिरम् ] बहुत समय तक [भग्नाः ] भग्न होते हुए [क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करोे; (किन्तु) [साक्षात् मोक्षः ] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशोंसे रहित) पद है और [स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान है ऐसे [इदं ज्ञानं ] इस ज्ञानको [ज्ञानगुणं विना ] ज्ञानगुणके बिना [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते
भावार्थ : — ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञानसे ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांडसे उसकी प्राप्ति नहीं होती ।१४२।
गाथार्थ : — [ज्ञानगुणेन विहीनाः ] ज्ञानगुणसे रहित [बहवः अपि ] बहुतसे लोग (अनेक प्रकारके कर्म करने पर भी) [एतत् पदं तु ] इस ज्ञानस्वरूप पदको [न लभन्ते ] प्राप्त नहीं करते; [तद् ] इसलिये हे भव्य! [यदि ] यदि तू [कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मसे सर्वथा मुक्ति [इच्छसि ]