Samaysar (Hindi). Kalash: 143.

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यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात् ज्ञानस्यानुपलम्भः, केवलेन
ज्ञानेनैव ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनात् ज्ञानस्योपलम्भः, ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा
ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते
ततः कर्ममोक्षार्थिना
केवलज्ञानावष्टम्भेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलम्भनीयम्
(द्रुतविलम्बित)
पदमिदं ननु कर्मदुरासदं
सहजबोधकलासुलभं किल
तत इदं निजबोधकलाबलात्
कलयितुं यततां सततं जगत्
।।१४३।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
चाहता हो तो [नियतम् एतत् ] नियत ऐसे इसको (ज्ञानको) [गृहाण ] ग्रहण कर
टीका :कर्ममें (कर्मकाण्डमें) ज्ञानका प्रकाशित होना नहीं होता, इसलिये समस्त
कर्मसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती; ज्ञानमें ही ज्ञानका प्रकाशन होता है, इसलिये केवल (एक) ज्ञानसे
ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है
इसलिये ज्ञानशून्य बहुतसे जीव, बहुतसे (अनेक प्रकारके) कर्म करने
पर भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते और इस पदको प्राप्त न करते हुए वे कर्मोंसे मुक्त नहीं
होते; इसलिये कर्मसे मुक्त होनेके इच्छुकको मात्र (एक) ज्ञानके आलम्बनसे, नियत ऐसा यह
एक पद प्राप्त करना चाहिये
भावार्थ :ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, कर्मसे नहीं; इसलिये मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान
करना ऐसा उपदेश है ।।२०५।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इदं पदम् ] यह (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं ] क र्मसे वास्तवमें
दुरासद है और [सहज-बोध-कला-सुलभं किल ] सहज ज्ञानकी कलाके द्वारा वास्तवमें सुलभ
है; [ततः ] इसलिये [निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञानकी कलाके बलसे [इदं कलयितुं ] इस
पदका
अभ्यास करनेके लिये [जगत् सततं यततां ] जगत सतत प्रयत्न करो
भावार्थ :समस्त कर्मको छुड़ाकर ज्ञानकलाके बल द्वारा ही ज्ञानका अभ्यास करनेका
दुरासद=दुष्प्राप्य; न जीता जा सके ऐसा
यहाँ ‘अभ्यास करनेके लिये’ ऐसे अर्थके बदलेमें ‘अनुभव करनेके लिये’, ‘प्राप्त करनेके लिये’ ऐसा
अर्थ भी होता है