किंच —
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।२०६।।
एतस्मिन् रतो नित्यं सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् ।
एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ।।२०६।।
एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि ।
एतावत्येव सत्याशीः यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि । एतावदेव
सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव
नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
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आचार्यदेवने उपदेश दिया है । ज्ञानकी ‘कला’ कहनेसे यह सूचित होता है कि — जब तक पूर्ण
कला (केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप — मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञानकी उस
कलाके आलम्बनसे ज्ञानका अभ्यास करनेसे केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है ।१४३।
अब इस गाथामें इसी उपदेशको विशेष कहते हैं : —
इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे ।
इससे हि बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।।२०६।।
गाथार्थ : — (हे भव्य प्राणी !) तू [एतस्मिन् ] इसमेंं ( – ज्ञानमें) [नित्यं ] नित्य [रतः ]
रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, [एतस्मिन् ] इसमेंं [नित्यं ] नित्य [सन्तुष्टः भव ] संतुष्ट हो और [एतेन ]
इससे [तृप्तः भव ] तृप्त हो; (ऐसा करनेसे) [तव ] तुझे [उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख
[भविष्यति ] होगा ।
टीका : — (हे भव्य !) इतना ही सत्य ( – परमार्थस्वरूप) आत्मा है जितना यह ज्ञान
है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रमें ही सदा ही रति ( – प्रीति, रुचि) प्राप्त कर; इतना ही सत्य
कल्याण है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही सन्तोषको प्राप्त
कर; इतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके
ज्ञानमात्रसे ही सदा ही तृप्ति प्राप्त कर । इसप्रकार सदा ही आत्मामें रत, आत्मासे संतुष्ट और
आत्मासे तृप्त ऐसे तुझको वचनसे अगोचर सुख होगा; और उस सुखको उसी क्षण तू ही