एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । एतावत्येव सत्याशीः यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण आचार्यदेवने उपदेश दिया है । ज्ञानकी ‘कला’ कहनेसे यह सूचित होता है कि — जब तक पूर्ण कला (केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप — मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञानकी उस कलाके आलम्बनसे ज्ञानका अभ्यास करनेसे केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है ।१४३।
गाथार्थ : — (हे भव्य प्राणी !) तू [एतस्मिन् ] इसमेंं ( – ज्ञानमें) [नित्यं ] नित्य [रतः ] रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, [एतस्मिन् ] इसमेंं [नित्यं ] नित्य [सन्तुष्टः भव ] संतुष्ट हो और [एतेन ] इससे [तृप्तः भव ] तृप्त हो; (ऐसा करनेसे) [तव ] तुझे [उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख [भविष्यति ] होगा ।
टीका : — (हे भव्य !) इतना ही सत्य ( – परमार्थस्वरूप) आत्मा है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रमें ही सदा ही रति ( – प्रीति, रुचि) प्राप्त कर; इतना ही सत्य कल्याण है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही सन्तोषको प्राप्त कर; इतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही तृप्ति प्राप्त कर । इसप्रकार सदा ही आत्मामें रत, आत्मासे संतुष्ट और आत्मासे तृप्त ऐसे तुझको वचनसे अगोचर सुख होगा; और उस सुखको उसी क्षण तू ही