Samaysar (Hindi). Kalash: 144.

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एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, मा अन्यान् प्राक्षीः
(उपजाति)
अचिन्त्यशक्ति : स्वयमेव देव-
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण
।।१४४।।
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत्
३२६
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
स्वयमेव देखेगा, दूसरोंसे मत पूछ (वह सुख अपनेको ही अनुभवगोचर है, दूसरोंसे क्यों
पूछना पड़े ?)
भावार्थ :ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, उसीसे सन्तुष्ट होना और उसीसे तृप्त होना
परम ध्यान है उससे वर्तमान आनन्दका अनुभव होता है और थोड़े ही समयमें
ज्ञानानन्दस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है ऐसा करनेवाला पुरुष ही उस सुखको जानता
है, दूसरेका इसमें प्रवेश नहीं है ।।२०६।।
अब, ज्ञानानुभवकी महिमाका और आगामी गाथाकी सूचनाका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यस्मात् ] क्योंकि [एषः ] यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव ] स्वयं ही
[अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र
चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं
ऐसे स्वरूप होनेसे [ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरेके परिग्रहसे [किम् विधत्ते ]
क्या करेगा ? (कुछ भी करनेका नहीं है
)
भावार्थ :यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनन्त शक्तिका धारक देव है और स्वयं
ही चैतन्यरूप चिंतामणि होनेसे वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व
प्रयोजन सिद्ध होनेसे उसे अन्य परिग्रहका सेवन करनेसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी
साध्य नहीं है
ऐसा निश्चयनयका उपदेश है ।१४४।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी परको क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते
हैं :
मा अन्यान् प्राक्षीः (दूसरोंको मत पूछ)का पाठान्तरमाऽतिप्राक्षीः (अति प्रश्न न कर)