छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं ।
जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।।२०९।।
छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम् ।
यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम ।।२०९।।
छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि
न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य
स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि ।
(वसन्ततिलका)
इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् ।
अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
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छेदाय या भेदाय, को ले जाय, नष्ट बनो भले ।
या अन्य को रीत जाय, पर परिग्रह न मेरा है अरे ।।२०९।।
गाथार्थ : — [छिद्यतां वा ] छिद जाये, [भिद्यतां वा ] अथवा भिद जाये, [नीयतां
वा ] अथवा कोई ले जाये, [अथवा विप्रलयम् यातु ] अथवा नष्ट हो जायेे, [यस्मात् तस्मात्
गच्छतु ] अथवा चाहेे जिस प्रकारसे चला जाये, [तथापि ] फि र भी [खलु ] वास्तवमें
[परिग्रहः ] परिग्रह [मम न ] मेरा नहीं है ।
टीका : — परद्रव्य छिदे, अथवा भिदे, अथवा कोई उसे ले जाये, अथवा वह नष्ट हो
जाये, अथवा चाहे जिसप्रकारसे जाये, तथापि मैं परद्रव्यको नहीं परिगृहित करूँगा; क्योंकि
‘परद्रव्य मेरा स्व नहीं है, – मैं परद्रव्यका स्वामी नहीं हूँ, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, – परद्रव्य
ही परद्रव्यका स्वामी है, मैं ही अपना स्व हूँ, – मैं ही अपना स्वामी हूँ — ऐसा मैं जानता हूँ ।
भावार्थ : — ज्ञानीको परद्रव्यके बिगड़ने-सुधरनेका हर्ष-विषाद नहीं होता ।।२०९।।
अब इसी अर्थका कलशरूप और आगामी कथनकी सूचनारूप काव्य कहते हैं : —
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श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रहको
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इस कलशका अर्थ इसप्रकार भी होता है : — [इत्थं ] इसप्रकार [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् समस्तम् एव