इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्मं नेच्छति । तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् । अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी धर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके धर्मका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) धर्मका केवल ज्ञायक ही है ।।२१०।।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [अधर्मम् ] अधर्मको (पापको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अधर्मस्य ] अधर्मका [अपरिग्रहः ] परिग्रही नहीं है, (कि न्तु) [ज्ञायकः ] (अधर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी अधर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) अधर्मका केवल ज्ञायक ही है ।