(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् ।
तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ।।१५३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३४९
दूसरा आशय इसप्रकार है : — अज्ञानी सुख ( – रागादिपरिणाम) उत्पन्न करनेवाले
आगामी भोगोंकी अभिलाषासे व्रत, तप, इत्यादि शुभ कर्म करता है, इसलिये वह कर्म
उसे रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंको देता है । ज्ञानीके सम्बन्धमें इससे
विपरीत समझना चाहिए । इसप्रकार अज्ञानी फलकी वाँछासे कर्म करता है, इसलिए वह फलको
पाता है और ज्ञानी फलकी वाँछा बिना ही कर्म करता है, इसलिए वह फलको प्राप्त नहीं
करता ।।२२४ से २२७।।
अब, ‘‘जिसे फलकी वाँछा नहीं है वह कर्म क्यों करे ?’’ इस आशंकाको दूर करनेके
लिए काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने क र्मका
फल छोड़ दिया है वह क र्म क रता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं क र सक ते । [किन्तु ] किन्तु
वहाँ इतना विशेष है कि — [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ]
उसे (ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा क र्म अवशतासेे ( – उसके वश बिना) आ पड़ता
है । [तस्मिन् आपतिते तु ] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प-परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी ]
जो अकं प परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [कर्म ] क र्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते ]
क रता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ : — ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं
होता । इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ?
ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है । ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है ।
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊ परके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिए । उनमेंसे, अविरत
सम्यग्दृष्टि, देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करनेवाले मुनियोंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं,
तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके
ही कर्ता हैं । अन्तरङ्ग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासम्भव कषायके अभावसे उनके परिणाम
उज्ज्वल हैं । उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते ।