Samaysar (Hindi). Bandh adhikar Kalash: 163.

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अथ प्रविशति बन्धः
(शार्दूलविक्रीडित)
रागोद्गारमहारसेन सक लं कृत्वा प्रमत्तं जगत्
क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयेन बन्धं धुनत्
आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फु टं नाटयद्
धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति
।।१६३।।
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बन्ध अधिकार
३६८
(दोहा)
रागादिकतैं कर्मकौ, बन्ध जानि मुनिराय
तजैं तिनहिं समभाव करि, नमूँ सदा तिन पाँय ।।
प्रथम टीकाकार कहते हैं कि ‘अब बन्ध प्रवेश करता है’ जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश
करता है उसीप्रकार रंगभूमिमें बन्धतत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता है
उसमें प्रथम ही, सर्व तत्त्वोंको यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान बन्धको दूर करता हुआ प्रगट
होता है, इस अर्थका मंगलरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा ] जो (बन्ध) रागके
उदयरूप महारस(मदिरा)के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (मतवाला) क रके, [रस-भाव-निर्भर-
महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं ] रसके भावसे (रागरूप मतवालेपनसे) भरे हुए महा नृत्यके द्वारा खेल
(नाच) रहा है ऐसे बन्धको [धुनत् ] उड़ाता
दूर क रता हुआ, [ज्ञानं ] ज्ञान [समुन्मज्जति ]
उदयको प्राप्त होता है वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि ] आनंदरूप अमृतका नित्य भोजन
क रनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फु टं नाटयत् ] अपनी ज्ञातृक्रियारूप सहज अवस्थाको प्रगट नचा
रहा है, [धीर-उदारम् ] धीर है, उदार (अर्थात् महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं ]
अनाकु ल है (अर्थात् जिसमें किंचित् भी आकु लताका कारण नहीं है), [निरूपधि ] उपाधि रहित
(अर्थात् परिग्रह रहित या जिसमें किञ्चित् भी परद्रव्य सम्बन्धी ग्रहण-त्याग नहीं है ऐसा) है