कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि ।
ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२३७।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ ।
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२३८।।
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं ।
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो ।।२३९।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो ।
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४०।।
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु ।
रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ।।२४१।।
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भावार्थ : — बन्धतत्त्वने ‘रंगभूमिमें’ प्रवेश किया है, उसे दूर करके जो ज्ञान स्वयं प्रगट
होकर नृत्य करेगा, उस ज्ञानकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की गई है । ऐसे अनन्त ज्ञानस्वरूप
जो आत्मा वह सदा प्रगट रहो ।१६३।
अब बन्धतत्त्वके स्वरूपका विचार करते हैं; उसमें पहिले बन्धके कारणको स्पष्टतया
बतलाते हैं : —
जिस रीत कोई पुरुष मर्दन आप करके तेलका ।
व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक खड़ा ।।२३७।।
अरु ताड़, कदली, बाँस आदिक छिन्नभिन्न बहू करे ।
उपघात आप सचित्त अवरु अचित्त द्रव्योंका करे ।।२३८।।
बहु भाँतिके करणादिसे उपघात करते उसहिको ।
निश्चयपने चिंतन करो, रजबन्ध है किन कारणों ? ।।२३९।।
यों जानना निश्चयपने — चिकनाइ जो उस नर विषैं ।
रजबन्धकारण सो हि है, नहिं कायचेष्टा शेष है ।।२४०।।
चेष्टा विविधमें वर्तता, इस भाँति मिथ्यादृष्टि जो ।
उपयोगमें रागादि करता, रजहिसे लेपाय सो ।।२४१।।