Samaysar (Hindi). Gatha: 237-241.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३६९
जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि
ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२३७।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२३८।।
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो ।।२३९।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४०।।
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु
रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ।।२४१।।
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भावार्थ :बन्धतत्त्वने ‘रंगभूमिमें’ प्रवेश किया है, उसे दूर करके जो ज्ञान स्वयं प्रगट
होकर नृत्य करेगा, उस ज्ञानकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की गई है ऐसे अनन्त ज्ञानस्वरूप
जो आत्मा वह सदा प्रगट रहो ।१६३।
अब बन्धतत्त्वके स्वरूपका विचार करते हैं; उसमें पहिले बन्धके कारणको स्पष्टतया
बतलाते हैं :
जिस रीत कोई पुरुष मर्दन आप करके तेलका
व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक खड़ा ।।२३७।।
अरु ताड़, कदली, बाँस आदिक छिन्नभिन्न बहू करे
उपघात आप सचित्त अवरु अचित्त द्रव्योंका करे ।।२३८।।
बहु भाँतिके करणादिसे उपघात करते उसहिको
निश्चयपने चिंतन करो, रजबन्ध है किन कारणों ? ।।२३९।।
यों जानना निश्चयपनेचिकनाइ जो उस नर विषैं
रजबन्धकारण सो हि है, नहिं कायचेष्टा शेष है ।।२४०।।
चेष्टा विविधमें वर्तता, इस भाँति मिथ्यादृष्टि जो
उपयोगमें रागादि करता, रजहिसे लेपाय सो ।।२४१।।