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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न कायवाङ्मनःकर्म,
यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसंगात् । न
सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसंगात् । ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे
रागादिकरणं स बन्धहेतुः ।
रहे हैं उनके भी, बन्धका प्रसंग आ जाएगा । काय-वचन-मनका कर्म (अर्थात् काय-वचन-
मनकी क्रियास्वरूप योग) भी बन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यात-
संयमियोंके भी (काय-वचन-मनकी क्रिया होनेसे) बन्धका प्रसंग आ जाएगा । अनेक
प्रकारके १करण भी बन्धका कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियोंके भी
(उन करणोंसे) बन्धका प्रसंग आ जाएगा । सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात भी बन्धका
कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जो समितिमें तत्पर हैं उनके (अर्थात् जो यत्नपूर्वक
प्रवृत्ति करते हैं ऐसे साधुओंके) भी (सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंके घातसे) बन्धका प्रसंग
आ जाएगा । इसलिये न्यायबलसे ही यह फलित हुआ कि, उपयोगमें रागादिकरण (अर्थात्
उपयोगमें रागादिकका करना), बन्धका कारण है ।
भावार्थ : — यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कथन है । जहाँ निर्बाध हेतुसे सिद्धि होती
है वही निश्चय है । बन्धका कारण विचार करने पर निर्बाधतया यही सिद्ध हुआ कि —
मिथ्यादृष्टि पुरुष जिन रागद्वेषमोहभावोंको अपने उपयोगमें करता है वे रागादिक ही बन्धका
कारण हैं । उनके अतिरिक्त अन्य — बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे परिपूर्ण लोक, काय-वचन-मनके
योग, अनेक करण तथा चेतन-अचेतनका घात — बन्धके कारण नहीं हैं; यदि उनसे बन्ध होता
हो तो सिद्धोंके, यथाख्यात चारित्रवानोंके, केवलज्ञानियोंके और समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले
मुनियोंके बन्धका प्रसंग आ जाएगा । परन्तु उनके तो बन्ध होता नहीं है । इसलिए इन हेतुओंमें
( – कारणोंमें) व्यभिचार (दोष) आया । इसलिए यह निश्चय है कि बन्धका कारण रागादिक
ही हैं ।
यहाँ समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंका नाम लिया गया है और अविरत,
देशविरतका नाम नहीं लिया; इसका यह कारण है कि — अविरत तथा देशविरतके
बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्रमोह सम्बन्धी रागसे किंचित् बन्ध होता है;
इसलिए सर्वथा बन्धके अभावकी अपेक्षामें उनका नाम नहीं लिया । वैसे अन्तरङ्गकी अपेक्षासे
तो उन्हें भी निर्बन्ध ही जानना चाहिए ।।२३७ से २४१।।
१करण = इन्द्रियाँ ।