न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत् ।
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ।।१६४।।
श्लोकार्थ : — [बन्धकृत् ] क र्मबन्धको क रनेवाला कारण, [न कर्मबहुलं जगत् ] न तो बहुत क र्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा ] न चलनस्वरूप क र्म (अर्थात् काय-वचन-मनकी क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि ] न अनेक प्रकारके क रण हैं [वा न चिद्-अचिद्-वधः ] और न चेतन-अचेतनका घात है । किन्तु [उपयोगभूः रागादिभिः यद्- ऐक्यम् समुपयाति ] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक के साथ जो ऐक्यको प्राप्त होता है [सः एव केवलं ] वही एक ( – मात्र रागादिक के साथ एक त्व प्राप्त करना वही – ) [किल ] वास्तवमें [नृणाम् बन्धहेतुः भवति ] पुरुषोंके बन्धका कारण है ।
सम्यग्दृष्टि उपयोगमें रागादिक नहीं करता, उपयोगका और रागादिका भेद जानकर रागादिक का स्वामी नहीं होता, इसलिए उसे पूर्वोक्त चेष्टासे बन्ध नहीं होता — यह कहते हैं : —