Samaysar (Hindi). Gatha: 242-243 Kalash: 164.

< Previous Page   Next Page >


Page 373 of 642
PDF/HTML Page 406 of 675

 

background image
कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३७३
(पृथ्वी)
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा
न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्
यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्
।।१६४।।
जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते
रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२४२।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२४३।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[बन्धकृत् ] क र्मबन्धको क रनेवाला कारण, [न कर्मबहुलं जगत् ] न तो
बहुत क र्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा ] न चलनस्वरूप क र्म
(अर्थात् काय-वचन-मनकी क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि ] न अनेक प्रकारके क रण हैं
[वा न चिद्-अचिद्-वधः ] और न चेतन-अचेतनका घात है
किन्तु [उपयोगभूः रागादिभिः यद्-
ऐक्यम् समुपयाति ] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक के साथ जो ऐक्यको प्राप्त होता है [सः
एव केवलं ]
वही एक (
मात्र रागादिक के साथ एक त्व प्राप्त करना वही) [किल ] वास्तवमें
[नृणाम् बन्धहेतुः भवति ] पुरुषोंके बन्धका कारण है
भावार्थ :यहाँ निश्चयनयसे एकमात्र रागादिकको ही बन्धका कारण कहा है ।१६४।
सम्यग्दृष्टि उपयोगमें रागादिक नहीं करता, उपयोगका और रागादिका भेद जानकर
रागादिक का स्वामी नहीं होता, इसलिए उसे पूर्वोक्त चेष्टासे बन्ध नहीं होतायह कहते हैं :
जिस रीत फि र वह ही पुरुष, उस तेल सबको दूर कर
व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक ठहर ।।२४२।।
अरु ताड़, कदली, बाँस, आदिक, छिन्नभिन्न बहू करे
उपघात आप सचित्त अवरु, अचित्त द्रव्योंका करे ।।२४३।।