यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यंगस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्द्रष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाणः सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात् । धूलिवाले [स्थाने ] स्थानमें [शस्त्रैः ] शस्त्रोंके द्वारा [व्यायामम् करोति ] व्यायाम क रता है, [तथा ] और [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः ] ताड़, तमाल, के ल, बाँस और अशोक इत्यादि वृक्षोंको [छिनत्ति ] छेदता है, [भिनत्ति च ] भेदता है, [सचित्ताचित्तानां ] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम् ] द्रव्योंका [उपघातम् ] उपघात [करोति ] क रता है; [नानाविधैः करणैः ] ऐसे नाना प्रकारके क रणोंके द्वारा [उपघातं कुर्वतः ] उपघात क रते हुए [तस्य ] उस पुरुषको [रजोबन्धः ] धूलिका बन्ध [खलु ] वास्तवमें [किम्प्रत्ययिकः ] किस कारणसे [न ] नहीं होता [निश्चयतः ] यह निश्चयसे [चिन्त्यताम् ] विचार करो । [तस्मिन् नरे ] उस पुरुषको [यः सः स्नेहभावः तु ] जो वह तेल आदिकी चिकनाई है [तेन ] उससे [तस्य ] उसके [रजोबन्धः ] धूलिका बन्ध होना [निश्चयतः विज्ञेयं ] निश्चयसे जानना चाहिए, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः ] शेष क ायाकी चेष्टाओंसे [न ] नहीं होता । (इसलिए उस पुरुषमें तेल आदिकी चिकनाहटका अभाव होनेसे ही धूलि इत्यादि नहीं चिपकती ।) [एवं ] इसप्रकार — [बहुविधेसु योगेषु ] बहुत प्रकारके योगोमें [वर्तमानः ] वर्तता हुआ [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [उपयोगे ] उपयोगमें [रागादीन् अकुर्वन् ] रागादिको न क रता हुआ [रजसा ] क र्मरजसे [न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता ।
टीका : — जैसे वही पुरुष, सम्पूर्ण चिकनाहटको दूर कर देने पर, उसी स्वभावसे ही अत्यधिक धूलिसे भरी हुई उसी भूमिमें वही शस्त्रव्यायामरूप कर्मको (क्रियाको) करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, धूलिसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके धूलिके लिप्त होनेका कारण जो तैलादिका मर्दन है उसका अभाव है; इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि, अपनेमें रागादिको न करता हुआ, उसी स्वभावसे ही बहुत कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें वही काय-वचन-मनकी क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, कर्मरूप रजसे नहीं बँधता, क्योंकि उसके बन्धके कारणभूत रागके योगका ( – रागमें जुड़नेका) अभाव है