तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत् ।
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्द्रगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।।
श्लोकार्थ : — [कर्मततः लोकः सः अस्तु ] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत क र्मोंसे (क र्मयोग्य पुद्गलोंसे) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु ] वह काय-वचन-मनका चलनस्वरूप क र्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु ] वे (पूर्वोक्त) क रण भी उसके भले रहें [च ] और [तत् चिद्-अचिद्- व्यापादनं अस्तु ] वह चेतन-अचेतनका घात भी भले हो, परंतु [अहो ] अहो! [अयम् सम्यग्दृग्-आत्मा ] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् ] रागादिक को उपयोगभूमिमें न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन् ] के वल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति ] किसी भी कारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त नहीं होता । (अहो ! देखो ! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है ।)
भावार्थ : — यहाँ सम्यग्दृष्टिकी अद्भुत महिमा बताई है, और यह कहा है कि — लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यका घात — वे बन्धके कारण नहीं हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि परजीवकी हिंसासे बन्धका होना नहीं कहा, इसलिए स्वच्छन्द होकर हिंसा करनी । किन्तु यहाँ यह आशय है कि अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी हो जाये तो उससे बन्ध नहीं होता । किन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक जीवोंको मारनेके भाव होंगे वहाँ तो अपने उपयोगमें रागादिका अस्तित्व होगा और उससे वहाँ हिंसाजन्य बन्ध होगा ही । जहाँ जीवको जिलानेका अभिप्राय हो वहाँ भी अर्थात् उस अभिप्रायको भी निश्चयनयमें मिथ्यात्व कहा है, तब फि र जीवको मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? अवश्य होगा । इसलिये कथनको नयविभागसे यथार्थ समझकर श्रद्धान करना चाहिए । सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व है ।१६५।