Samaysar (Hindi). Kalash: 165.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्
तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत्
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्
द्रगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।।
होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता इसके समर्थनमें पहले कहा जा चुका है ।।२४२ से २४६।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कर्मततः लोकः सः अस्तु ] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत क र्मोंसे
(क र्मयोग्य पुद्गलोंसे) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु ]
वह काय-वचन-मनका चलनस्वरूप क र्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि
अस्मिन् सन्तु ]
वे (पूर्वोक्त) क रण भी उसके भले रहें [च ] और [तत् चिद्-अचिद्-
व्यापादनं अस्तु ]
वह चेतन-अचेतनका घात भी भले हो, परंतु [अहो ] अहो! [अयम्
सम्यग्
दृग्-आत्मा ] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् ] रागादिक को
उपयोगभूमिमें न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन् ] के वल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता
हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति ] किसी भी कारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त
नहीं होता
(अहो ! देखो ! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है )
भावार्थ :यहाँ सम्यग्दृष्टिकी अद्भुत महिमा बताई है, और यह कहा है कि
लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यका घातवे बन्धके कारण नहीं हैं इसका अर्थ यह
नहीं है कि परजीवकी हिंसासे बन्धका होना नहीं कहा, इसलिए स्वच्छन्द होकर हिंसा
करनी
किन्तु यहाँ यह आशय है कि अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी हो जाये
तो उससे बन्ध नहीं होता किन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक जीवोंको मारनेके भाव होंगे वहाँ तो अपने
उपयोगमें रागादिका अस्तित्व होगा और उससे वहाँ हिंसाजन्य बन्ध होगा ही जहाँ जीवको
जिलानेका अभिप्राय हो वहाँ भी अर्थात् उस अभिप्रायको भी निश्चयनयमें मिथ्यात्व कहा है,
तब फि र जीवको मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? अवश्य होगा
इसलिये
कथनको नयविभागसे यथार्थ समझकर श्रद्धान करना चाहिए सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व
है ।१६५।