तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः ।
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ।।१६६।।
जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः ।
र्मिथ्याद्रशः स नियतं स च बन्धहेतुः ।।१६७।।
श्लोकार्थ : — [तथापि ] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणोंसे बन्ध नहीं कहा और रागादिक से ही बन्ध क हा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते ] ज्ञानियोंको निरर्गल (स्वच्छन्दतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव ] क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वास्तवमें बन्धका ही स्थान है । [ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत् अकारणम् मतम् ] ज्ञानियोंके वाँछारहित कर्म (कार्य) होता है वह बन्धका कारण नहीं क हा, क्योंकि [जानाति च करोति ] जानता भी है और (क र्मको ) क रता भी है — [द्वयं किमु न हि विरुध्यते ] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं हैं ? (क रना और जानना निश्चयसे विरोधरूप ही है ।)
भावार्थ : — पहले काव्यमें लोक आदिको बन्धका कारण नहीं कहा, इसलिए वहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिका बन्धके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध किया है; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामकी — बन्धके कारणकी — निमित्तभूत है, उस निमित्तका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिए । ज्ञानियोंके अबुद्धिपूर्वक — वाँछा रहित — प्रवृत्ति होती है, इसलिये बन्ध नहीं कहा है, उन्हें कहीं स्वच्छन्द होकर प्रवर्तनेको नहीं क हा है; क्योंकि मर्यादा रहित (निरंकुश) प्रवर्तना तो बन्धका ही कारण है । जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है; ज्ञाता रहेगा तो बन्ध नहीं होगा, कर्ता होगा तो अवश्य बन्ध होगा ।१६६।
‘‘जो जानता है सो करता नहीं और जो करता है सो जानता नहीं; करना तो कर्मका राग है, और जो राग है सो अज्ञान है तथा अज्ञान बन्धका कारण है ।’’ — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —