३७८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२४७।।
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः ।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२४७।।
परजीवानहं हिनस्मि, परजीवैर्हिंस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति
सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्द्रष्टिः ।
श्लोकार्थ : — [यः जानाति सः न करोति ] जो जानता है सो क रता नहीं [तु ] और [यः
करोति अयं खलु जानाति न ] जो क रता है सो जानता नहीं । [तत् किल कर्मरागः ] क रना तो
वास्तवमें क र्मराग है [तु ] और [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः ] रागको (मुनियोंने)
अज्ञानमय अध्यवसाय क हा है; [सः नियतं मिथ्यादृशः ] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय)
नियमसे मिथ्यादृष्टिके होता है [च ] और [सः बन्धहेतुः ] वह बन्धका कारण है ।१६७।
अब मिथ्यादृष्टिके आशयको गाथामें स्पष्ट कहते हैं : —
जो मानता — मैं मारुँ पर अरु घात पर मेरा करे ।
सो मूढ है, अज्ञानि है, विपरीत इससे ज्ञानि है ।।२४७।।
गाथार्थ : — [यः ] जो [मन्यते ] यह मानता है कि [हिनस्मि च ] ‘मैं पर जीवोंको मारता
हूँ [परैः सत्त्वैः हिंस्ये च ] और पर जीव मुझे मारते हैं ’, [सः ] वह [मूढः ] मूढ ( – मोही) है,
[अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] इससे विपरीत (जो ऐसा नहीं मानता वह)
[ज्ञानी ] ज्ञानी है ।
टीका : — ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं ’ — ऐसा १अध्यवसाय
ध्रुवरूपसे ( – नियमसे, निश्चयतः) अज्ञान है । वह अध्यवसाय जिसके है वह अज्ञानीपनेके कारण
मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है ।
भावार्थ : — ‘परजीवोंको मैं मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं’ ऐसा आशय अज्ञान है,
इसलिए जिसका ऐसा आशय है वह अज्ञानी है — मिथ्यादृष्टि है और जिसका ऐसा आशय नहीं
है वह ज्ञानी है — सम्यग्दृष्टि है ।
निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है : — स्वयं स्वाधीनतया जिस भावरूप परिणमित हो उस
१अध्यवसाय = मिथ्या अभिप्राय; आशय ।