भावका स्वयं कर्ता कहलाता है । इसलिए परमार्थतः कोई किसीका मरण नहीं करता । जो परसे परका मरण मानता है, वह अज्ञानी है । निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता कहना सो व्यवहारनयका कथन है; उसे यथार्थतया ( – अपेक्षाको समझ कर) मानना सो सम्यग्ज्ञान है ।।२४७।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा कहते हैं : —
गाथार्थ : — (हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ ’ सो यह तेरा अज्ञान है ।) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा [जिनवरैः ] जिनवरोंने [प्रज्ञप्तम् ] क हा है; [त्वं ] तू [आयुः ] पर जीवोंके आयुक र्मको तो [न हरसि ] हरता नहीं है, [त्वया ] तो तूने [तेषाम् मरणं ] उनका मरण [कथं ] कैसे [कृतं ] किया ?
(हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘पर जीव मुझे मारते हैं ’ सो यह तेरा अज्ञान है ।) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा