कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३७९
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत् —
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।।२४८।।
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।।२४९।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम् ।
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम् ।।२४८।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम् ।
आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः ।।२४९।।
भावका स्वयं कर्ता कहलाता है । इसलिए परमार्थतः कोई किसीका मरण नहीं करता । जो परसे
परका मरण मानता है, वह अज्ञानी है । निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता कहना सो व्यवहारनयका
कथन है; उसे यथार्थतया ( – अपेक्षाको समझ कर) मानना सो सम्यग्ज्ञान है ।।२४७।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा
कहते हैं : —
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवरने कहा ।
तू आयु तो हरता नहीं, तैंने मरण कैसे किया ? ।।२४८।।
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवरने कहा ।
वे आयु तुझ हरते नहीं, तो मरण तुझ कैसे किया ? ।।२४९।।
गाथार्थ : — (हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ ’ सो यह तेरा
अज्ञान है ।) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा
[जिनवरैः ] जिनवरोंने [प्रज्ञप्तम् ] क हा है; [त्वं ] तू [आयुः ] पर जीवोंके आयुक र्मको तो [न
हरसि ] हरता नहीं है, [त्वया ] तो तूने [तेषाम् मरणं ] उनका मरण [कथं ] कैसे [कृतं ] किया ?
(हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘पर जीव मुझे मारते हैं ’ सो यह तेरा अज्ञान
है ।) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा