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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायुःकर्म
च नान्येनान्यस्य हर्तुं शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य
मरणं कुर्यात् । ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।
जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत् —
[जिनवरैः ] जिनवरोंने [प्रज्ञप्तम् ] क हा है; पर जीव [तव आयुः ] तेरे आयुक र्मको तो
[न हरन्ति ] हरते नहीं हैं, [तैः ] तो उन्होंने [ते मरणं ] तेरा मरण [कथं ] कैसे [कृतं ]
किया ?
टीका : — प्रथम तो, जीवोंका मरण वास्तवमें अपने आयुकर्मके क्षयसे ही होता है,
क्योंकि अपने आयुकर्मके क्षयके अभावमें मरण होना अशक्य है; और दूसरेसे दूसरेका स्व-
आयुकर्म हरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह (स्व-आयुकर्म) अपने उपभोगसे ही
क्षयको प्राप्त होता है; इसलिये किसी भी प्रकारसे कोई दूसरा किसी दूसरेका मरण नहीं कर
सकता । इसलिये ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ, और पर जीव मुझे मारते हैं’ ऐसा अध्यवसाय
ध्रुवरूपसे ( – नियमसे) अज्ञान है ।
भावार्थ : — जीवकी जो मान्यता हो तदनुसार जगतमें नहीं बनता हो, तो वह मान्यता
अज्ञान है । अपने द्वारा दूसरेका तथा दूसरेसे अपना मरण नहीं किया जा सकता, तथापि यह
प्राणी व्यर्थ ही ऐसा मानता है सो अज्ञान है । यह कथन निश्चयनयकी प्रधानतासे है ।
व्यवहार इसप्रकार है : — परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावसे पर्यायका जो उत्पाद-व्यय हो
उसे जन्म-मरण कहा जाता है; वहाँ जिसके निमित्तसे मरण ( – पर्यायका व्यय) हो उसके
सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि ‘इसने इसे मारा’, यह व्यवहार है ।
यहाँ ऐसा नहीं समझना कि व्यवहारका सर्वथा निषेध है । जो निश्चयको नहीं जानते,
उनका अज्ञान मिटानेके लिए यहाँ कथन किया है । उसे जाननेके बाद दोनों नयोंको
अविरोधरूपसे जानकर यथायोग्य नय मानना चाहिए ।।२४८ से २४९।।
अब पुनः प्रश्न होता है कि ‘‘(मरणका अध्यवसाय अज्ञान है यह कहा सो जान
लिया; किन्तु अब) मरणके अध्यवसायका प्रतिपक्षी जो जीवनका अध्यवसाय है उसका क्या
हाल है ?’’ उसका उत्तर कहते हैं : —