परजीवानहं जीवयामि, परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः ।
गाथार्थ : — [यः ] जो जीव [मन्यते ] यह मानता है कि [जीवयामि ] मैं पर जीवोंको जिलाता हूँ [च ] और [परैः सत्त्वैः ] पर जीव [जीव्ये च ] मुझे जिलाते हैं, [सः ] वह [मूढः ] मूढ ( – मोही) है, [अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] इससे विपरीत (जो ऐसा नहीं मानता, किन्तु इससे उल्टा मानता है) वह [ज्ञानी ] ज्ञानी है ।
टीका : — ‘पर जीवोंको मैं जिलाता हूँ, और पर जीव मुझे जिलाते हैं ’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे ( – अत्यन्त निश्चितरूपसे) अज्ञान है । यह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है ।
भावार्थ : — यह मानना अज्ञान है कि ‘पर जीव मुझे जिलाता है और मैं परको जिलाता हूँ’ । जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है ।।२५०।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह (जीवनका) अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते हैं : —