३८२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू ।
आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।।२५२।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः ।
आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम् ।।२५१।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः ।
आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तैः ।।२५२।।
जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्;
स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न
कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् । अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।
जीतव्य जीवका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा ।
वे आयु तुझ देते नहीं, तो जीवन तुझ कैसे किया ? ।।२५२।।
गाथार्थ : — [जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है
[एवं ] ऐसा [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; [त्वं ] तू [आयुः च ] पर जीवोंको
आयुक र्म तो [न ददासि ] नहीं देता [त्वया ] तो (हे भाई !) तूने [तेषाम् जीवितं ] उनका जीवन
(जीवित रहना) [कथं कृतं ] कैसे किया ?
[जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है [एवं ] ऐसा
[सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; पर जीव [तव ] तुझे [आयुः च ] आयुक र्म तो [न
ददति ] देते नहीं हैं [तैः ] तो (हे भाई !) उन्होंने [ते जीवितं ] तेरा जीवन (जीवित रहना) [कथं
नु कृतं ] कैसे किया ?
टीका : — प्रथम तो, जीवोंका जीवित (जीवन) वास्तवमें अपने आयुकर्मके उदयसे ही
है, क्योंकि अपने आयुकर्मके उदयके अभावमें जीवित रहना अशक्य है; और अपना आयुकर्म दूसरेसे
दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना आयुकर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता
है; इसलिए किसी भी प्रकारसे दूसरा दूसरेका जीवन नहीं कर सकता । इसलिये ‘मैं परको जिलाता
हूँ और पर मुझे जिलाता है’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे (नियतरूपसे) अज्ञान है ।
भावार्थ : — पहले मरणके अध्यवसायके सम्बन्धमें कहा था, इसीप्रकार यहाँ भी
जानना ।।२५१ से २५२।।