जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् । अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।
गाथार्थ : — [जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है [एवं ] ऐसा [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; [त्वं ] तू [आयुः च ] पर जीवोंको आयुक र्म तो [न ददासि ] नहीं देता [त्वया ] तो (हे भाई !) तूने [तेषाम् जीवितं ] उनका जीवन (जीवित रहना) [कथं कृतं ] कैसे किया ?
[जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है [एवं ] ऐसा [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; पर जीव [तव ] तुझे [आयुः च ] आयुक र्म तो [न ददति ] देते नहीं हैं [तैः ] तो (हे भाई !) उन्होंने [ते जीवितं ] तेरा जीवन (जीवित रहना) [कथं नु कृतं ] कैसे किया ?
टीका : — प्रथम तो, जीवोंका जीवित (जीवन) वास्तवमें अपने आयुकर्मके उदयसे ही है, क्योंकि अपने आयुकर्मके उदयके अभावमें जीवित रहना अशक्य है; और अपना आयुकर्म दूसरेसे दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना आयुकर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है; इसलिए किसी भी प्रकारसे दूसरा दूसरेका जीवन नहीं कर सकता । इसलिये ‘मैं परको जिलाता हूँ और पर मुझे जिलाता है’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे (नियतरूपसे) अज्ञान है ।
भावार्थ : — पहले मरणके अध्यवसायके सम्बन्धमें कहा था, इसीप्रकार यहाँ भी जानना ।।२५१ से २५२।।