कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३८३
दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषैव गतिः —
जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति ।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५३।।
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति ।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५३।।
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्य-
ध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्
सम्यग्द्रष्टिः ।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत् —
अब यह कहते हैं कि दुःख-सुख करनेके अध्यवसायकी भी यही गति है : —
जो आपसे माने दुःखीसुखी, मैं करूँ पर जीवको ।
सो मूढ है, अज्ञानि है, विपरीत इससे ज्ञानि है ।।२५३।।
गाथार्थ : — [यः ] जो [इति मन्यते ] यह मानता है कि [आत्मना तु ] अपने द्वारा
[सत्त्वान् ] मैंं (पर) जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [करोमि ] करता हूँ, [सः ] वह
[मूढः ] मूढ ( – मोही) है, [अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] जो इससे विपरीत
है वह [ज्ञानी ] ज्ञानी है ।
टीका : — ‘पर जीवोंको मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और पर जीव मुझे दुःखी तथा
सुखी करते हैं ’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है । वह अध्यवसाय जिसके है वह
जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके
कारण सम्यग्दृष्टि है ।
भावार्थ : — यह मानना अज्ञान है कि — ‘मैं पर जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ और
परजीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं’ । जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; और जिसके
यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानी है — सम्यग्दृष्टि है ।।२५३।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते हैं : –