परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्य- ध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः ।
गाथार्थ : — [यः ] जो [इति मन्यते ] यह मानता है कि [आत्मना तु ] अपने द्वारा [सत्त्वान् ] मैंं (पर) जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [करोमि ] करता हूँ, [सः ] वह [मूढः ] मूढ ( – मोही) है, [अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] जो इससे विपरीत है वह [ज्ञानी ] ज्ञानी है ।
टीका : — ‘पर जीवोंको मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और पर जीव मुझे दुःखी तथा सुखी करते हैं ’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है । वह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है ।
भावार्थ : — यह मानना अज्ञान है कि — ‘मैं पर जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं’ । जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; और जिसके यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानी है — सम्यग्दृष्टि है ।।२५३।।