सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्ये- नान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य सुख- दुःखे कुर्यात् । अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।१६८।।
तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [दुःखितः ] तुझको दुःखी [कथं कृतः असि ] कैसे किया ?
[यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] क र्मके उदयसे [दुःखितसुखिताः ] दुःखी-सुखी [भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [तव ] तुझे [कर्म ] क र्म तो [न ददति ] नहीं देते, तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [त्वं ] तुझको [सुखितः ] सुखी [कथं कृतः ] कैसे किया ?
टीका : — प्रथम तो, जीवोंको सुख-दुःख वास्तवमें अपने कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदयके अभावमें सुख-दुःख होना अशक्य है; और अपना कर्म दूसरे द्वारा दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना कर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है; इसलिये किसी भी प्रकारसे दूसरा दूसरेको सुख-दुःख नहीं कर सकता । इसलिये यह अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है कि ‘मैं पर जीवोंको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर जीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं’ ।
भावार्थ : — जीवका जैसा आशय हो तदनुसार जगतमें कार्य न होते हों तो वह आशय अज्ञान है । इसलिये, सभी जीव अपने अपने कर्मोदयसे सुखी-दुःखी होते हैं, वहाँ यह मानना कि ‘मैं परको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर मुझे सुखी-दुःखी करता है’, सो अज्ञान है । निमित्त -नैमित्तिकभावके आश्रयसे (किसीको किसीके) सुख-दुःखका करनेवाला कहना सो व्यवहार है; जो कि निश्चयकी दृष्टिमें गौण है ।।२५४ से २५६।।
श्लोकार्थ : — [इह ] इस जगतमें [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख — [सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे ( – निश्चितरूपसे) अपने क र्मोदयसे होता है; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात् ] ‘दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है’ [यत् तु ] ऐसा जो मानना, [एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है ।१६८।