Samaysar (Hindi). Kalash: 168.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३८५
सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्ये-
नान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य सुख-
दुःखे कुर्यात्
अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्
(वसन्ततिलका)
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय-
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
।।१६८।।
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तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [दुःखितः ] तुझको दुःखी [कथं कृतः असि ] कैसे किया ?
[यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] क र्मके उदयसे [दुःखितसुखिताः ]
दुःखी-सुखी [भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [तव ] तुझे [कर्म ] क र्म तो [न ददति ] नहीं
देते, तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [त्वं ] तुझको [सुखितः ] सुखी [कथं कृतः ] कैसे किया ?
टीका :प्रथम तो, जीवोंको सुख-दुःख वास्तवमें अपने कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि
अपने कर्मोदयके अभावमें सुख-दुःख होना अशक्य है; और अपना कर्म दूसरे द्वारा दूसरेको नहीं
दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना कर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है; इसलिये किसी
भी प्रकारसे दूसरा दूसरेको सुख-दुःख नहीं कर सकता
इसलिये यह अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान
है कि ‘मैं पर जीवोंको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर जीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं’
भावार्थ :जीवका जैसा आशय हो तदनुसार जगतमें कार्य न होते हों तो वह आशय
अज्ञान है इसलिये, सभी जीव अपने अपने कर्मोदयसे सुखी-दुःखी होते हैं, वहाँ यह मानना कि
‘मैं परको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर मुझे सुखी-दुःखी करता है’, सो अज्ञान है निमित्त
-नैमित्तिकभावके आश्रयसे (किसीको किसीके) सुख-दुःखका करनेवाला कहना सो व्यवहार है;
जो कि निश्चयकी दृष्टिमें गौण है
।।२५४ से २५६।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस जगतमें [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण,
जीवित, दुःख, सुख[सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे
(निश्चितरूपसे) अपने क र्मोदयसे होता है; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्
कुर्यात् ] ‘दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है’ [यत् तु ] ऐसा जो मानना,
[एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है
।१६८।