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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(वसन्ततिलका)
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य
पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्याद्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो ।
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७।।
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु ।
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५८।।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्वकथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त
करके [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण,
जीवन, दुःख, सुखको देखते हैं अर्थात् मानते हैं, [ते ] वे पुरुष — [अहंकृतिरसेन क र्माणि
चिकीर्षवः ] जो कि इसप्रकार अहंकाररससे क र्मोंको करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् ‘मैं इन कर्मोंको
करता हूँ’ ऐसे अहंकाररूप रससे जो क र्म क रनेकी — मारने-जिलानेकी, सुखी-दुःखी क रनेकी —
वाँछा क रनेवाले हैं) वे — [नियतम् ] नियमसे [मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि है,
अपने आत्माका घात क रनेवाले हैं ।
भावार्थ : — जो परको मारने-जिलानेका तथा सुख-दुःख करनेका अभिप्राय रखते हैं वे
मिथ्यादृष्टि हैं । वे अपने स्वरूपसे च्युत होते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात
करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं ।१६९।
अब इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं : —
मरता दुखी होता जु जीव — सब कर्म-उदयोंसे बने ।
‘मुझसे मरा अरु दुखि हुआ’ — क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५७।।
अरु नहिं मरे, नहिं दुखि बने, वे कर्म-उदयोंसे बने ।
‘मैंने न मारा दुखि करा’ — क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५८।।