Samaysar (Hindi). Gatha: 257-258 Kalash: 169.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(वसन्ततिलका)
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य
पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्या
द्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७।।
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५८।।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्वकथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त
करके [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण,
जीवन, दुःख, सुखको देखते हैं अर्थात् मानते हैं, [ते ] वे पुरुष
[अहंकृतिरसेन क र्माणि
चिकीर्षवः ] जो कि इसप्रकार अहंकाररससे क र्मोंको करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् ‘मैं इन कर्मोंको
करता हूँ’ ऐसे अहंकाररूप रससे जो क र्म क रनेकी
मारने-जिलानेकी, सुखी-दुःखी क रनेकी
वाँछा क रनेवाले हैं) वे[नियतम् ] नियमसे [मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि है,
अपने आत्माका घात क रनेवाले हैं
भावार्थ :जो परको मारने-जिलानेका तथा सुख-दुःख करनेका अभिप्राय रखते हैं वे
मिथ्यादृष्टि हैं वे अपने स्वरूपसे च्युत होते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात
करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं ।१६९।
अब इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं :
मरता दुखी होता जु जीवसब कर्म-उदयोंसे बने
‘मुझसे मरा अरु दुखि हुआ’क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५७।।
अरु नहिं मरे, नहिं दुखि बने, वे कर्म-उदयोंसे बने
‘मैंने न मारा दुखि करा’क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५८।।