यो हि म्रियते जीवति वा, दुःखितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् । ततः मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दुःखितः कृतः, अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः ।
गाथार्थ : — [यः म्रियते ] जो मरता है [च ] और [यः दुःखितः जायते ] जो दुःखी होता है [सः सर्वः ] वह सब [कर्मोदयेन ] क र्मोदयसे होता है; [तस्मात् तु ] इसलिये [मारितः च दुःखितः ] ‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ [इति ] ऐसा [ते ] तेरा अभिप्राय [न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
[च ] और [यः न म्रियते ] जो न मरता है [च ] और [न दुःखितः ] न दुःखी होता है [सः अपि ] वह भी [खलु ] वास्तवमें [कर्मोदयेन च एव ] क र्मोदयसे ही होता है; [तस्मात् ] इसलिये [न मारितः च न दुःखितः ] ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’ [इति ] ऐसा तेरा अभिप्राय [न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
टीका : — जो मरता है या जीता है, दुःखी होता है या सुखी होता है, यह वास्तवमें अपने कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदयके अभावमें उसका वैसा होना (मरना, जीना, दुःखी या सुखी होना) अशक्य है । इसलिये ऐसा देखनेवाला अर्थात् माननेवाला मिथ्यादृष्टि है कि — ‘मैंने इसे मारा, इसे जिलाया, इसे दुःखी किया, इसे सुखी किया’ ।
भावार्थ : — कोई किसीके मारे नहीं मरता और जिलाए नहीं जीता तथा किसीके सुखी- दुःखी किये सुखी-दुःखी नहीं होता; इसलिये जो मारने, जिलाने आदिका अभिप्राय करता है वह मिथ्यादृष्टि ही है — यह निश्चयका वचन है । यहाँ व्यवहारनय गौण है ।।२५७ से २५८।।