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मोक्ष अधिकार
अथ प्रविशति मोक्षः ।
(शिखरिणी)
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम् ।
इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।।१८०।।
(दोहा)
कर्मबन्ध सब काटिके, पहुँचे मोक्ष सुथान ।
नमूं सिद्ध परमातमा, करूँ ध्यान अमलान ।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब मोक्ष प्रवेश करता है ।’
जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश करता है उसीप्रकार यहाँ मोक्षतत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता
है । वहाँ ज्ञान सर्व स्वाँगका ज्ञाता है, इसलिये अधिकारके प्रारम्भमें आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानकी
महिमाके रूपमें मंगलाचरण कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इदानीम् ] अब (बन्ध पदार्थके पश्चात्), [प्रज्ञा-क्रकच-दलनात् बन्ध-
पुरुषौ द्विधाकृत्य ] प्रज्ञारूपी क रवतसे विदारण द्वारा बन्ध और पुरुषको द्विधा (भिन्न भिन्न – दो)
करके, [पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम् ] पुरुषको — कि जो पुरुष मात्र १अनुभूति द्वारा ही निश्चित
है उसे — [साक्षात् मोक्षं नयत् ] साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ, [पूर्णं ज्ञानं विजयते ] पूर्ण ज्ञान
जयवंत प्रवर्तता है । वह ज्ञान [उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं ] प्रगट होनेवाले सहज
परमानंदके द्वारा सरस अर्थात् रसयुक्त है, [परं ] उत्कृ ष्ट है, और [कृत-सकल-कृत्यं ] जिसने क रने
योग्य समस्त कार्य क र लिये हैं ( – जिसे कुछ भी क रना शेष नहीं है) ऐसा है ।
१जितना स्वरूप-अनुभवन है इतना ही आत्मा है ।