स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु ।
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।१८७।।
ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन ? यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो भवत्यात्मा; सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुम्भत्वे सति प्रतिक्रमणा- जिसका लक्षण है ऐसी आराधना पूर्वक सदा ही वर्तता है इसलिये, आराधक ही है ।
भावार्थ : — संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और आराधित — इन शब्दोंका एक ही अर्थ है । यहाँ शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका नाम ‘राध’ है । जिनके वह राध नहीं है वह आत्मा सापराध है और जिसके वह राध है वह आत्मा निरपराध है । जो सापराध है उसे बन्धकी शंका होती है, इसलिये वह स्वयं अशुद्ध होनेसे अनाराधक है; और जो निरपराध है वह निःशंक होता हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है, इसलिये उसे बन्धकी शंका नहीं होती, इसलिये ‘जो शुद्ध आत्मा है वही मैं हूँ’ ऐसे निश्चयपूर्वक वर्तता हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है ।।३०४-३०५।।
श्लोकार्थ : — [सापराधः ] सापराध आत्मा [अनवरतम् ] निरन्तर [अनन्तैः ] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप क र्मोंसे [बध्यते ] बँधता है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा [बन्धनम् ] बन्धनको [जातु ] क दापि [स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता । [अयम् ] जो सापराध आत्मा है वह तो [नियतम् ] नियमसे [स्वम् अशुद्धं भजन् ] अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ [सापराधः ] सापराध है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा तो [साधु ] भलीभाँति [शुद्धात्मसेवी भवति ] शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है ।१८७।
(यहाँ व्यवहारनयावलम्बी अर्थात् व्यवहारनयको अवलम्बन करनेवाला तर्क करता है कि : — ) ‘‘शुद्ध आत्माकी उपासनाका यह प्रयास करनेका क्या काम है ? क्योंकि प्रतिक्रमण आदिसे ही आत्मा निरपराध होता है; क्योंकि सापराधके, जो अप्रतिक्रमण आदि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले न होनेसे, विषकुम्भ हैं, इसलिये जो प्रतिक्रमणादि हैं वे,