अत्रोच्यते — अपराधको दूर करनेवाले होनेसे, अमृतकुम्भ हैं । व्यवहारका कथन करनेवाले आचारसूत्रमें भी कहा है कि : —
[अर्थ : — अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा और अशुद्धि — यह (आठ प्रकारका) विषकुम्भ है ।१।
१प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निन्दा, ७गर्हा और ८शुद्धि — यह आठ प्रकारका अमृतकुम्भ है ।२।]
उपरोक्त तर्कका समाधान करते हुए आचार्यदेव (निश्चयनयकी प्रधानतासे) गाथा द्वारा कहते हैं : — १. प्रतिक्रमण = कृत दोषोंका निराकरण । २. प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा । ३. परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोंका निवारण । ४. धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना । ५. निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें प्रवर्तमान चित्तको हटा लेना । ६. निन्दा = आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोंका प्रगट करना । ७. गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना । ८. शुद्धि = दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना ।