कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
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देस्तदपोहकत्वेनामृतकुम्भत्वात् । उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे — ‘‘अप्पडिकमणमप्पडिसरणं
अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो ।।१।।
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो
अमयकुंभो दु ।।२।।’’
अत्रोच्यते —
१. प्रतिक्रमण = कृत दोषोंका निराकरण ।
२. प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा ।
३. परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोंका निवारण ।
४. धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना ।
५. निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें प्रवर्तमान चित्तको हटा लेना ।
६. निन्दा = आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोंका प्रगट करना ।
७. गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना ।
८. शुद्धि = दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना ।
अपराधको दूर करनेवाले होनेसे, अमृतकुम्भ हैं । व्यवहारका कथन करनेवाले आचारसूत्रमें भी
कहा है कि : —
अप्पडिकमणमपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव ।
अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुम्भो ।।१।।
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य ।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुम्भो दु ।।२।।
[अर्थ : — अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा और
अशुद्धि — यह (आठ प्रकारका) विषकुम्भ है ।१।
१प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निन्दा, ७गर्हा और ८शुद्धि — यह
आठ प्रकारका अमृतकुम्भ है ।२।]
उपरोक्त तर्कका समाधान करते हुए आचार्यदेव (निश्चयनयकी प्रधानतासे) गाथा द्वारा
कहते हैं : —