यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ? यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः
गाथार्थ : — [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्र मण, [प्रतिसरणम् ] प्रतिसरण, [परिहारः ] परिहार, [धारणा ] धारणा, [निवृत्तिः ] निवृत्ति, [निन्दा ] निन्दा, [गर्हा ] गर्हा [च शुद्धिः ] और शुद्धि — [अष्टविधः ] यह आठ प्रकारका [विषकुम्भः ] विषकुं भ [भवति ] है (क्योंकि इसमें कर्तृत्वकी बुद्धि सम्भवित है) ।
[अप्रतिक्रमणम् ] अप्रतिक्र मण, [अप्रतिसरणम् ] अप्रतिसरण, [अपरिहारः ] अपरिहार, [अधारणा ] अधारणा, [अनिवृत्तिः च ] अनिवृत्ति, [अनिन्दा ] अनिन्दा, [अगर्हा ] अगर्हा [च एव ] और [अशुद्धिः ] अशुद्धि — [अमृतकुम्भः ] यह अमृतकुं भ है (क्योंकि इससे कर्तृत्वका निषेध है — कुछ करना ही नहीं है, इसलिये बन्ध नहीं होता) ।
टीका : — प्रथम तो जो अज्ञानीजनसाधारण ( – अज्ञानी लोगोंको साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले हैं, इसलिये स्वयमेव अपराधरूप होनेसे विषकुम्भ ही है; उनका विचार करनेका क्या प्रयोजन है ? (क्योंकि वे तो प्रथम