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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीवः, एवमजीवोऽपि
क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव, न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात्
कंक णादिपरिणामैः कांचनवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह
कार्यकारणभावो न सिध्यति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्; तदसिद्धौ
चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिध्यति; तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं
न सिध्यति । अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते ।
[नियमात् ] नियमसे [कर्म प्रतीत्य ] क र्मके आश्रयसे ( – क र्मका अवलम्बन लेकर)
[कर्ता ] क र्ता होता है; [तथा च ] और [कर्तारं प्रतीत्य ] क र्ताके आश्रयसे [कर्माणि
उत्पद्यन्ते ] क र्म उत्पन्न होते हैं; [अन्या तु ] अन्य किसी प्रकारसे [सिद्धिः ] क र्ताक र्मकी
सिद्धि [न दृश्यते ] नहीं देखी जाती ।
टीका : — प्रथम तो जीव क्रमबद्ध ऐसे अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ जीव ही
है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमबद्ध अपने परिणामोंसे उपन्न होता हुआ अजीव
ही है, जीव नहीं; क्योंकि जैसे (कंकण आदि परिणामोंसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे) सुवर्णका
कंकण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य है, उसी प्रकार सर्व द्रव्योंका अपने परिणामोंके साथ
तादात्म्य है । इसप्रकार जीव अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता है तथापि उसका अजीवके साथ
कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्योंका अन्यद्रव्यके साथ उत्पाद्य-
उत्पादकभावका अभाव है; उसके (कार्यकारणभावके) सिद्ध न होने पर, अजीवके जीवका
कर्मत्व सिद्ध नहीं होता; और उसके ( – अजीवके जीवका कर्मत्व) सिद्ध न होने पर,
कर्ता-कर्मकी अन्यनिरपेक्षतया ( – अन्यद्रव्यसे निरपेक्षतया, स्वद्रव्यमें ही) सिद्धि होनेसे, जीवके
अजीवका कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । इसलिये जीव अकर्ता सिद्ध होता है ।
भावार्थ : — सर्व द्रव्योंके परिणाम भिन्न-भिन्न हैं । सभी द्रव्य अपने-अपने परिणामोंके
कर्ता हैं; वे उन परिणामोंके कर्ता हैं, वे परिणाम उनके कर्म हैं । निश्चयसे किसीका किसीके
साथ कर्ताकर्मसम्बन्ध नहीं है । इसलिये जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने
परिणाम कर्म हैं । इसीप्रकार अजीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने परिणाम कर्म
हैं । इसप्रकार जीव दूसरेके परिणामोंका अकर्ता है ।।३०८ से ३११।।
‘इसप्रकार जीव अकर्ता है तथापि उसे बन्ध होता है, यह कोई अज्ञानकी महिमा है’
इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —