कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४५९
(शिखरिणी)
अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः
स्फु रच्चिज्जयोतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः ।
तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः
स खल्वज्ञानस्य स्फु रति महिमा कोऽपि गहनः ।।१९५।।
चेदा दु पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ ।
पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ ।।३१२।।
एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे ।
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।।३१३।।
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति ।
प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।।३१२।।
श्लोकार्थ : — [स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [स्फु रत्-चित्-
ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः ] जिसकी स्फु रायमान होती हुई चैतन्यज्योतियोंके द्वारा
लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः ] ऐसा यह जीव
[इति ] पूर्वोक्त प्रकारसे (परद्रव्यका तथा परभावोंका) [अकर्ता स्थितः ] अक र्ता सिद्ध हुआ,
[तथापि ] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः ] क र्मप्रकृ तियोंके साथ [यद् असौ
बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा
स्फु रति ] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फु रायमान है
।
भावार्थ : — जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे
परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बन्ध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है —
जिसका पार नहीं पाया जाता ।१९५।
(अब इस अज्ञानकी महिमाको प्रगट करते हैं : — )
पर जीव प्रकृतीके निमित्त जु, उपजता नशता अरे !
अरु प्रकृतिका जीवके निमित्त, विनाश अरु उत्पाद है ।।३१२।।
अन्योन्यके जु निमित्तसे यों, बन्ध दोनोंका बने ।
— इस जीव प्रकृती उभयका, संसार इससे होय है ।।३१३।।