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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
एवं बन्धस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत् ।
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।।३१३।।
अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता
सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्ति-
विनाशावासादयति । एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन
द्वयोरपि बन्धो द्रष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।
गाथार्थ : — [चेतयिता तु ] चेतक अर्थात् आत्मा [प्रकृत्यर्थम् ] प्रकृ तिके निमित्तसे
[उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [विनश्यति ] और नष्ट होता है, [प्रकृतिः अपि ] तथा प्रकृ ति
भी [चेतकार्थम् ] चेतक अर्थात् आत्माके निमित्तसे [उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [विनश्यति ]
तथा नष्ट होती है । [एवं ] इसप्रकार [अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [द्वयोः अपि ]
दोनोंका — [आत्मनः प्रकृतेः च ] आत्माका और प्रकृ तिका — [बन्धः तु भवेत् ] बन्ध होता
है, [तेन ] और इससे [संसारः ] संसार [जायते ] उत्पन्न होता है ।
टीका : — यह आत्मा, (उसे) अनादि संसारसे ही (अपने और परके भिन्न-भिन्न)
निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होनेसे परके और अपने एकत्वका अध्यास करनेसे
कर्ता होता हुआ, प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होता है; प्रकृति भी आत्माके
निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होती है (अर्थात् आत्माके परिणामानुसार परिणमित होती है),
इसप्रकार — यद्यपि उन आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है, तथापि — परस्पर
निमित्तनैमित्तिकभावसे दोनोंके बन्ध देखा जाता है, उससे संसार है और इसीसे उनके (आत्मा
और प्रकृतिके) कर्ता-कर्मका व्यवहार है ।
भावार्थ : — आत्माके और ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतिओंके परमार्थसे
कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावके कारण बन्ध होता है, इससे
संसार है और इसीसे कर्ताकर्मपनेका व्यवहार है ।।३१२-३१३।।
(अब यह कहते हैं कि — ‘जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना न
छोड़े तब तक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंयत है’ : — )