Samaysar (Hindi). Gatha: 314-315.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६१
जा एस पयडीअट्ठं चेदा णेव विमुंचए
अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ ।।३१४।।
जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं
तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी ।।३१५।।
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुञ्चति
अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्याद्रष्टिरसंयतः ।।३१४।।
यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।।३१५।।
यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं
न मुंचति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्याद्रष्टि-
र्भवति, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता
उत्पाद-व्यय प्रकृतीनिमित्त जु, जब हि तक नहिं परितजे
अज्ञानि, मिथ्यात्वी, असंयत, तब हि तक वह जीव रहे ।।३१४।।
यह आतमा जब ही करमका, फल अनन्ता परितजे
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि सो हि कर्मविमुक्त है ।।३१५।।
गाथार्थ :[यावत् ] जब तक [एषः चेतयिता ] यह आत्मा [प्रकृत्यर्थं ] प्रकृ तिके
निमित्तसे उपजना-विनशना [न एव विमुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [तावत् ] तब तक वह
[अज्ञायकः ] अज्ञायक है, [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि है, [असंयतः भवेत् ] असंयत है
[यदा ] जब [ चेतयिता ] आत्मा [अनन्तक म् कर्मफलम् ] अनन्त क र्म फलको [विमुञ्चति ]
छोड़ता है, [तदा ] तब वह [ज्ञायकः ] ज्ञायक है, [दर्शकः ] दर्शक है, [मुनिः ] मुनि है, [विमुक्तः
भवति ]
विमुक्त अर्थात् बन्धसे रहित है
टीका :जब तक यह आत्मा, (स्व-परके भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान
(भेदज्ञान) न होनेसे, प्रकृतिके स्वभावकोजो कि अपनेको बन्धका निमित्त है उसकोनहीं
छोड़ता, तब तक स्व-परके एकत्वज्ञानसे अज्ञायक है, स्व-परके एकत्वदर्शनसे (एकत्वरूप
श्रद्धानसे) मिथ्यादृष्टि है और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे असंयत है; और तब तक ही परके तथा