Samaysar (Hindi). Gatha: 316 Kalash: 196.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भवति यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति,
तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति,
स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति
(अनुष्टुभ्)
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः
अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।।१९६।।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ।।३१६।।
अपने एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता है और जब यही आत्मा, (अपने और परके भिन्न-भिन्न)
निश्चित स्वलक्षणोंके ज्ञानके (भेदज्ञानके) कारण, प्रकृतिके स्वभावकोजो कि अपनेको बन्धका
निमित्त है उसकोछोड़ता है, तब स्व-परके विभागज्ञानसे (भेदज्ञानसे) ज्ञायक है, स्व-परके
विभागदर्शनसे (भेददर्शनसे) दर्शक है और स्व-परकी विभागपरिणतिसे (भेदपरिणतिसे) संयत है;
और तभी स्व-परके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है
।।३१४-३१५।।
भावार्थ :जब तक यह आत्मा स्व-परके लक्षणको नहीं जानता तब तक वह भेदज्ञानके
अभावके कारण कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर परिणमित होता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि,
अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बन्ध करता है
और जब आत्माको भेदज्ञान होता
है तब वह कर्ता नहीं होता, इसलिये कर्मका बन्ध नहीं करता, ज्ञाताद्रष्टारूपसे परिणमित होता है
‘इसप्रकार भोक्तृत्व भी आत्माका स्वभाव नहीं है’ इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक
श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कर्तृत्ववत् ] कर्तृत्वकी भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न ]
भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है [अज्ञानात् एव अयं
भोक्ता ] वह अज्ञानसे ही भोक्ता है, [तद्-अभावात् अवेदकः ] अज्ञानका अभाव होने पर वह
अभोक्त है
।१९६।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :
अज्ञानी स्थित प्रकृतीस्वभाव सु, कर्मफलको वेदता
अरु ज्ञानि तो जाने उदयगत कर्मफल, नहिं भोगता ।।३१६।।