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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भवति । यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति,
तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति,
स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति ।
(अनुष्टुभ्)
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः ।
अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।।१९६।।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि ।
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ।।३१६।।
अपने एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता है । और जब यही आत्मा, (अपने और परके भिन्न-भिन्न)
निश्चित स्वलक्षणोंके ज्ञानके (भेदज्ञानके) कारण, प्रकृतिके स्वभावको — जो कि अपनेको बन्धका
निमित्त है उसको — छोड़ता है, तब स्व-परके विभागज्ञानसे (भेदज्ञानसे) ज्ञायक है, स्व-परके
विभागदर्शनसे (भेददर्शनसे) दर्शक है और स्व-परकी विभागपरिणतिसे (भेदपरिणतिसे) संयत है;
और तभी स्व-परके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है ।।३१४-३१५।।
भावार्थ : — जब तक यह आत्मा स्व-परके लक्षणको नहीं जानता तब तक वह भेदज्ञानके
अभावके कारण कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर परिणमित होता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि,
अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बन्ध करता है । और जब आत्माको भेदज्ञान होता
है तब वह कर्ता नहीं होता, इसलिये कर्मका बन्ध नहीं करता, ज्ञाताद्रष्टारूपसे परिणमित होता है ।
‘इसप्रकार भोक्तृत्व भी आत्माका स्वभाव नहीं है’ इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक
श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [कर्तृत्ववत् ] कर्तृत्वकी भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न ]
भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है । [अज्ञानात् एव अयं
भोक्ता ] वह अज्ञानसे ही भोक्ता है, [तद्-अभावात् अवेदकः ] अज्ञानका अभाव होने पर वह
अभोक्त है ।१९६।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं : —
अज्ञानी स्थित प्रकृतीस्वभाव सु, कर्मफलको वेदता ।
अरु ज्ञानि तो जाने उदयगत कर्मफल, नहिं भोगता ।।३१६।।