अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते ।
गाथार्थ : — [अज्ञानी ] अज्ञानी [प्रकृतिस्वभावस्थितः तु ] प्रकृ तिके स्वभावमें स्थित रहता हुआ [कर्मफलं ] क र्मफलको [वेदयते ] वेदता (भोगता) है [पुनः ज्ञानी ] और ज्ञानी तो [उदितं कर्मफलं ] उदित (उदयागत) क र्मफलको [जानाति ] जानता है, [न वेदयते ] भोगता नहीं ।
टीका : — अज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण स्व-परके एकत्वज्ञानसे, स्व-परके एकत्वदर्शनसे और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे प्रकृतिके स्वभावको भी ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको भी ‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार अनुभव करता हुआ) कर्मफलको वेदता — भोगता है; और ज्ञानी तो शुद्धात्माके ज्ञानके सद्भावके कारण स्व-परके विभागज्ञानसे, स्व-परके विभागदर्शनसे और स्व-परकी विभागपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावसे निवृत्त ( – दूरवर्ती) होनेसे शुद्ध आत्माके स्वभावको एकको ही ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ उदित कर्मफलको, उसके ज्ञेयमात्रताके कारण, जानता ही है, किन्तु उसका ‘अहं’रूपसे अनुभवमें आना अशक्य होनेसे, (उसे) नहीं भोगता ।
भावार्थ : — अज्ञानीको तो शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है, इसलिये जो कर्म उदयमें आता है उसीको वह निजरूप जानकर भोगता है; और ज्ञानीको शुद्ध आत्माका अनुभव हो गया है, इसलिए वह उस प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता हुआ उसका मात्र ज्ञाता ही रहता है, भोक्ता नहीं होता ।।३१६।।