कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६३
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते ।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ।।३१६।।
अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन,
स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं
वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन,
स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन्
कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते ।
गाथार्थ : — [अज्ञानी ] अज्ञानी [प्रकृतिस्वभावस्थितः तु ] प्रकृ तिके स्वभावमें स्थित
रहता हुआ [कर्मफलं ] क र्मफलको [वेदयते ] वेदता (भोगता) है [पुनः ज्ञानी ] और ज्ञानी
तो [उदितं कर्मफलं ] उदित (उदयागत) क र्मफलको [जानाति ] जानता है, [न वेदयते ]
भोगता नहीं ।
टीका : — अज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण स्व-परके एकत्वज्ञानसे,
स्व-परके एकत्वदर्शनसे और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे
प्रकृतिके स्वभावको भी ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको भी
‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार अनुभव करता हुआ) कर्मफलको वेदता — भोगता है; और ज्ञानी तो
शुद्धात्माके ज्ञानके सद्भावके कारण स्व-परके विभागज्ञानसे, स्व-परके विभागदर्शनसे और
स्व-परकी विभागपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावसे निवृत्त ( – दूरवर्ती) होनेसे शुद्ध आत्माके
स्वभावको एकको ही ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ उदित कर्मफलको, उसके
ज्ञेयमात्रताके कारण, जानता ही है, किन्तु उसका ‘अहं’रूपसे अनुभवमें आना अशक्य होनेसे,
(उसे) नहीं भोगता ।
भावार्थ : — अज्ञानीको तो शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है, इसलिये जो कर्म उदयमें
आता है उसीको वह निजरूप जानकर भोगता है; और ज्ञानीको शुद्ध आत्माका अनुभव हो
गया है, इसलिए वह उस प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता हुआ उसका मात्र
ज्ञाता ही रहता है, भोक्ता नहीं होता ।।३१६।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —