ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः ।
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ।।१९७।।
श्लोकार्थ : — [अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत् ] अज्ञानी प्रकृ ति- स्वभावमें लीन – रक्त होनेसे ( – उसीको अपना स्वभाव जानता है इसलिये – ) सदा वेदक है, [तु ] और [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो ] ज्ञानी तो प्रकृ तिस्वभावसे विरक्त होनेसे ( – उसे परका स्वभाव जानता है इसलिए – ) क दापि वेदक नहीं है । [इति एवं नियमं निरूप्य ] इसप्रकारके नियमको भलीभाँति विचार करके — निश्चय करके [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम् ] निपुण पुरुषो अज्ञानीपनको छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि ] शुद्ध-एक -आत्मामय तेजमें [अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो ।१९७।
अब, यह नियम बताया जाता है कि ‘अज्ञानी वेदक ही है’ (अर्थात् अज्ञानी भोक्ता ही है, ऐसा नियम है) : —
गाथार्थ : — [सुष्ठु ] भली भाँति [शास्त्राणि ] शास्त्रोंको [अधीत्य अपि ] पढ़कर भी [अभव्यः ] अभव्य जीव [प्रकृतिम् ] प्रकृ तिको (अर्थात् प्रकृ तिके स्वभावको) [न मुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [गुडदुग्धम् ] जैसे मीठे दूधको [पिबन्तः अपि ] पीते हुए [पन्नगाः ] सर्प [निर्विषाः ] निर्विष [न भवन्ति ] नहीं होते ।