कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६५
मुंचति; तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुंचति, प्रकृतिस्वभावमोचन-
समर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुंचति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात् । अतो
नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव ।
ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यते —
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि ।
महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ ।।३१८।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति ।
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति ।।३१८।।
59
छुड़ानेमें समर्थ ऐसे मिश्रीसहित दुग्धपानसे भी नहीं छोड़ता, इसीप्रकार वास्तवमें अभव्य जीव
प्रकृतिस्वभावको अपने आप नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावको छुड़ानेमें समर्थ ऐसे द्रव्यश्रुतके
ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता; क्योंकि उसे सदा ही, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके (-शुद्ध आत्माके
ज्ञानके) अभावके कारण, अज्ञानीपन है । इसलिये यह नियम किया जाता है ( — ऐसा नियम सिद्ध
होता है) कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे वेदक ही है (-कर्मका भोक्ता ही है) ।
भावार्थ : — इस गाथामें, यह नियम बताया है कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता ही है ।
यहाँ अभव्यका उदाहरण युक्त है । जैसे : — अभव्यका स्वयमेव यह स्वभाव होता है कि
द्रव्यश्रुतका ज्ञान आदि बाह्य कारणोंके मिलने पर भी अभव्य जीव, शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके
कारण, कर्मोदयको भोगनेके स्वभावको नहीं बदलता; इसलिये इस उदाहरणसे स्पष्ट हुआ कि
शास्त्रोंका ज्ञान इत्यादि होने पर भी जब तक जीवको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है अर्थात् अज्ञानीपन
है तब तक वह नियमसे भोक्ता ही है ।।३१७।।
अब, यह नियम करते हैं कि — ज्ञानी तो कर्मफलका अवेदक ही है : —
वैराग्यप्राप्त जु ज्ञानिजन है कर्मफलको जानता ।
कड़वे-मधुर बहुभाँतिको, इससे अवेदक है अहा ! ।।३१८।।
गाथार्थ : — [निर्वेदसमापन्नः ] निर्वेद(वैराग्य)को प्राप्त [ज्ञानी ] ज्ञानी [मधुरम्
कटुकम् ] मीठे-क ड़वे [बहुविधम् ] अनेक प्रकारके [कर्मफलम् ] क र्मफलको [विजानाति ]
जानता है, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अवेदकः भवति ] अवेदक है ।