Samaysar (Hindi). Kalash: 198.

< Previous Page   Next Page >


Page 466 of 642
PDF/HTML Page 499 of 675

 

background image
४६६
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यन्तविरक्त त्वात् प्रकृति-
वभावं स्वयमेव मुंचति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न
पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते
अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्त त्वादवेदक
एव
(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव
।।१९८।।
टीका :ज्ञानी तो जिसमेंसे भेद दूर हो गये हैं ऐसा भावश्रुतज्ञान जिसका स्वरूप है,
ऐसे शुद्धात्मज्ञानके (शुद्ध आत्माके ज्ञानके) सद्भावके कारण, परसे अत्यन्त विरक्त होनेसे
प्रकृति-(कर्मोदय)के स्वभावको स्वयमेव छोड़ देता है, इसलिये उदयमें आये हुए अमधुर या मधुर
कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होने पर (
ज्ञान हो तब) परद्रव्यको
‘अहं’रूपसे अनुभव करनेकी अयोग्यता होनेसे (उस कर्मफलको) नहीं वेदता इसलिये, ज्ञानी
प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे अवेदक ही है
भावार्थ :जो जिससे विरक्त होता है उसे वह अपने वश तो भोगता नहीं है, और यदि
परवश होकर भोगता है तो वह परमार्थसे भोक्ता नहीं कहलाता इस न्यायसे ज्ञानीजो कि
प्रकृतिस्वभावको (कर्मोदयको) अपना न जाननेसे उससे विरक्त है वहस्वयमेव तो
प्रकृतिस्वभावको नहीं भोगता, और उदयकी बलवत्तासे परवश होता हुआ अपनी निर्बलतासे भोगता
है तो उसे परमार्थसे भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है
किन्तु व्यवहारका
तो यहाँ शुद्धनयके कथनमें अधिकार नहीं है; इसलिये ज्ञानी अभोक्ता ही है ।।३१८।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी क र्मको न तो क रता है और
न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह क र्मके स्वभावको मात्र
जानता ही है
[परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात् ] क रने और
वेदनेके (भोगनेके) अभावके कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त : एव ] शुद्ध स्वभावमें
निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है
भावार्थ :ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये
वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है कर्म उदयमें आता भी है, फि र भी वह ज्ञानीका
क्या कर सकता है ? जब तक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; ज्ञानी क्रमशः शक्ति