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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यन्तविरक्त त्वात् प्रकृति-
वभावं स्वयमेव मुंचति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न
पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्त त्वादवेदक
एव ।
(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् ।
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।।१९८।।
टीका : — ज्ञानी तो जिसमेंसे भेद दूर हो गये हैं ऐसा भावश्रुतज्ञान जिसका स्वरूप है,
ऐसे शुद्धात्मज्ञानके ( – शुद्ध आत्माके ज्ञानके) सद्भावके कारण, परसे अत्यन्त विरक्त होनेसे
प्रकृति-(कर्मोदय)के स्वभावको स्वयमेव छोड़ देता है, इसलिये उदयमें आये हुए अमधुर या मधुर
कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होने पर ( – ज्ञान हो तब) परद्रव्यको
‘अहं’रूपसे अनुभव करनेकी अयोग्यता होनेसे (उस कर्मफलको) नहीं वेदता । इसलिये, ज्ञानी
प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे अवेदक ही है ।
भावार्थ : — जो जिससे विरक्त होता है उसे वह अपने वश तो भोगता नहीं है, और यदि
परवश होकर भोगता है तो वह परमार्थसे भोक्ता नहीं कहलाता । इस न्यायसे ज्ञानी — जो कि
प्रकृतिस्वभावको (कर्मोदयको) अपना न जाननेसे उससे विरक्त है वह — स्वयमेव तो
प्रकृतिस्वभावको नहीं भोगता, और उदयकी बलवत्तासे परवश होता हुआ अपनी निर्बलतासे भोगता
है तो उसे परमार्थसे भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है । किन्तु व्यवहारका
तो यहाँ शुद्धनयके कथनमें अधिकार नहीं है; इसलिये ज्ञानी अभोक्ता ही है ।।३१८।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी क र्मको न तो क रता है और
न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह क र्मके स्वभावको मात्र
जानता ही है । [परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात् ] क रने और
वेदनेके (भोगनेके) अभावके कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त : एव ] शुद्ध स्वभावमें
निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है ।
भावार्थ : — ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये
वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है । कर्म उदयमें आता भी है, फि र भी वह ज्ञानीका
क्या कर सकता है ? जब तक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; ज्ञानी क्रमशः शक्ति