ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।
गाथार्थ : — [ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि] बहुत प्रकारके [कर्माणि] क र्मोंको [न अपि करोति] न तो क रता है, [न अपि वेदयते ] और न वेदता (भोगता) ही है; [पुनः ] कि न्तु [पुण्यं च पापं च ] पुण्य और पापरूप [बन्धं ] क र्मबन्धको [कर्मफलं ] तथा क र्मफलको [जानाति ] जानता है ।
टीका : — ज्ञानी कर्मचेतना रहित होनेसे स्वयं अकर्ता है, और कर्मफलचेतना रहित होनेसे स्वयं अवेदक ( – अभोक्ता) है, इसलिए वह कर्मको न तो करता है और न वेदता ( – भोगता) है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होनेसे मात्र ज्ञाता ही है, इसलिये वह शुभ अथवा अशुभ कर्मबन्धको तथा कर्मफलको मात्र जानता ही है ।।३१९।।
अब प्रश्न होता है कि — (ज्ञानी करता-भोगता नहीं है, मात्र जानता ही है) यह कैसे है ? इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं : —
जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्षको ।।३२०।।