कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं ।
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।।३१९।।
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि ।
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च ।।३१९।।
ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न
कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च
शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।
कुत एतत् ? —
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव ।
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।।३२०।।
बढ़ाकर अन्तमें कर्मका समूल नाश करेगा ही ।१९८।
अब इसी अर्थको पुनः दृढ़ करते हैं : —
करता नहीं, नहिं वेदता, ज्ञानी करम बहुभाँतिका ।
बस जानता वह बन्ध त्यों हि कर्मफल शुभ-अशुभको ।।३१९।।
गाथार्थ : — [ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि] बहुत प्रकारके [कर्माणि] क र्मोंको [न अपि
करोति] न तो क रता है, [न अपि वेदयते ] और न वेदता (भोगता) ही है; [पुनः ] कि न्तु [पुण्यं
च पापं च ] पुण्य और पापरूप [बन्धं ] क र्मबन्धको [कर्मफलं ] तथा क र्मफलको [जानाति ]
जानता है ।
टीका : — ज्ञानी कर्मचेतना रहित होनेसे स्वयं अकर्ता है, और कर्मफलचेतना रहित होनेसे
स्वयं अवेदक ( – अभोक्ता) है, इसलिए वह कर्मको न तो करता है और न वेदता ( – भोगता)
है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होनेसे मात्र ज्ञाता ही है, इसलिये वह शुभ अथवा अशुभ कर्मबन्धको तथा
कर्मफलको मात्र जानता ही है ।।३१९।।
अब प्रश्न होता है कि — (ज्ञानी करता-भोगता नहीं है, मात्र जानता ही है) यह कैसे है ?
इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं : —
ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक, नहीं वेदक अहो !
जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्षको ।।३२०।।