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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
द्रष्टिः यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव ।
जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव ।।३२०।।
यथात्र लोके द्रष्टिर्दश्यादत्यन्तविभक्त त्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् द्रश्यं न करोति न
वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य
च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं
द्रष्टृत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्त त्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च,
किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ।
१संधुक्षण = संधूकण; अग्नि जलानेवाला पदार्थ; अग्निको चेतानेवाली वस्तु ।
गाथार्थ : — [यथा एव दृष्टिः ] जैसे नेत्र (दृश्य पदार्थोंको क रता-भोगता नहीं है, किन्तु
देखता ही है), [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानम् ] ज्ञान [अकारकं ] अकारक [अवेदकं च एव ] तथा
अवेदक है, [च ] और [बन्धमोक्षं ] बन्ध, मोक्ष, [कर्मोदयं ] क र्मोदय [निर्जरां च एव ] तथा
निर्जराको [जानाति ] जानता ही है ।
टीका : — जैसे इस जगतमें नेत्र दृश्य पदार्थसे अत्यन्त भिन्नताके कारण उसे करने-वेदने
( – भोगने)में असमर्थ होनेसे, दृश्य पदार्थको न तो करता है और न वेदता ( – भोगता) है — यदि
ऐसा न हो तो अग्निको देखने पर, १संधुक्षणकी भाँति, अपनेको ( – नेत्रको) अग्निका कर्तृत्व
(जलाना), और लोहेके गोलेकी भाँति अपनेको (नेत्रको) अग्निका अनुभव दुर्निवार होना चाहिए,
(अर्थात् यदि नेत्र दृश्य पदार्थको करता और भोगता हो तो नेत्रके द्वारा अग्नि जलनी चाहिए और
नेत्रको अग्निकी उष्णताका अनुभव होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये नेत्र दृश्य पदार्थका
कर्ता-भोक्ता नहीं है) — किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभाववाला होनेसे वह (नेत्र) सबको मात्र देखता
ही है; इसीप्रकार ज्ञान भी, स्वयं (नेत्रकी भाँति) देखनेवाला होनेसे, कर्मसे अत्यन्त भिन्नताके
कारण निश्चयसे उसके करने-वेदने-(भोगने) में असमर्थ होनेसे, कर्मको न तो करता है और न
वेदता (भोगता) है, किन्तु केवल ज्ञानमात्रस्वभाववाला ( – जाननेका स्वभाववाला) होनेसे कर्मके
बन्धको तथा मोक्षको, और कर्मके उदयको तथा निर्जराको मात्र जानता ही है ।
भावार्थ : — ज्ञानका स्वभाव नेत्रकी भाँति दूरसे जानना है; इसलिये ज्ञानके कर्तृत्व-
भोक्तृत्व नहीं है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व मानना अज्ञान है । यहाँ कोई पूछता है कि — ‘‘ऐसा तो
केवलज्ञान है । और शेष तो जब तक मोहकर्मका उदय है तब तक सुखदुःखरागादिरूप परिणमन
होता ही है, तथा जब तक दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायका उदय है तब तक अदर्शन,