सकता है ?’’ उसका समाधान : — पहलेसे ही यह कहा जा रहा है कि जो स्वतन्त्रतया करता-
स्वतन्त्रतया तो किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी
बलवत्तासे जो कार्य होता है उसका परमार्थदृष्टिसे वह कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता । और उस
और इतना विशेष जानना चाहिए कि — केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही हैं और श्रुतज्ञानी भी शुद्धनयके अवलम्बनसे आत्माको ऐसा ही अनुभव करते हैं; प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है । इसलिये श्रुतज्ञानीको ज्ञान-श्रद्धानकी अपेक्षासे ज्ञाता-द्रष्टापन ही है और चारित्रकी अपेक्षासे प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना घात है और उसे नष्ट करनेका उद्यम भी है । जब उस कर्मका अभाव हो जायेगा तब साक्षात् यथाख्यात् चारित्र प्रगट होगा और तब केवलज्ञान प्रगट होगा । यहाँ सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञानी कहा जाता है सो वह मिथ्यात्वके अभावकी अपेक्षासे कहा जाता है । यदि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा लें तो सभी जीव ज्ञानी हैं और विशेषकी अपेक्षा लें तो जब तक किंचित्मात्र भी अज्ञान है तब तक ज्ञानी नहीं कहा जा सकता — जैसे सिद्धांत ग्रन्थोंमें भावोंका वर्णन करते हुए, जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है । इसलिये यहाँ जो ज्ञानी-अज्ञानीपन कहा है वह सम्यक्त्व मिथ्यात्वकी अपेक्षासे ही जानना चाहिए ।।३२०।।
अब, जो — जैन साधु भी — सर्वथा एकान्तके आशयसे आत्माको कर्ता ही मानते हैं उनका निषेध करते हुए, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति ] जो अज्ञान-अंधकारसे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत् ] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति नहीं होती । १९९ ।