Samaysar (Hindi). Kalash: 199.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६९
(अनुष्टुभ्)
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ।।१९९।।
अज्ञान तथा असमर्थता होती ही है; तब फि र केवलज्ञान होनेसे पूर्व ज्ञातादृष्टापन कैसे कहा जा
सकता है ?’’ उसका समाधान :
पहलेसे ही यह कहा जा रहा है कि जो स्वतन्त्रतया करता-
भोगता है, वह परमार्थसे कर्ता-भोक्ता कहलाता है इसलिये जहाँ मिथ्यादृष्टिरूप अज्ञानका
अभाव हुआ वहाँ परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव हो जाता है और तब जीव ज्ञानी होता हुआ
स्वतन्त्रतया तो किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी
बलवत्तासे जो कार्य होता है उसका परमार्थदृष्टिसे वह कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता
और उस
कार्यके निमित्तसे कुछ नवीन कर्मरज लगती भी है तो भी उसे यहाँ बन्धमें नहीं गिना जाता
मिथ्यात्व है वही संसार है मिथ्यात्वके जानेके बाद संसारका अभाव ही होता है समुद्रमें एक
बुँदकी गिनती ही क्या है ?
और इतना विशेष जानना चाहिए किकेवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही हैं और
श्रुतज्ञानी भी शुद्धनयके अवलम्बनसे आत्माको ऐसा ही अनुभव करते हैं; प्रत्यक्ष और परोक्षका
ही भेद है
इसलिये श्रुतज्ञानीको ज्ञान-श्रद्धानकी अपेक्षासे ज्ञाता-द्रष्टापन ही है और चारित्रकी
अपेक्षासे प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना घात है और उसे नष्ट करनेका उद्यम भी है जब
उस कर्मका अभाव हो जायेगा तब साक्षात् यथाख्यात् चारित्र प्रगट होगा और तब केवलज्ञान प्रगट
होगा
यहाँ सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञानी कहा जाता है सो वह मिथ्यात्वके अभावकी अपेक्षासे कहा
जाता है यदि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा लें तो सभी जीव ज्ञानी हैं और विशेषकी अपेक्षा लें तो जब
तक किंचित्मात्र भी अज्ञान है तब तक ज्ञानी नहीं कहा जा सकताजैसे सिद्धांत ग्रन्थोंमें भावोंका
वर्णन करते हुए, जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक
अज्ञानभाव कहा है
इसलिये यहाँ जो ज्ञानी-अज्ञानीपन कहा है वह सम्यक्त्व मिथ्यात्वकी
अपेक्षासे ही जानना चाहिए ।।३२०।।
अब, जोजैन साधु भीसर्वथा एकान्तके आशयसे आत्माको कर्ता ही मानते हैं उनका
निषेध करते हुए, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति ] जो अज्ञान-अंधकारसे
आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके इच्छुक हों
तथापि [सामान्यजनवत् ] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति
नहीं होती
१९९