ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः ।
मान्यतामें दोनों समान हुए) । [एवं ] इसप्रकार, [सदेवमनुजासुरान् लोकान् ] देव, मनुष्य और
प्रवर्तमान) ऐसे [लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि ] उन लोक और श्रमण — दोनोंका [कोऽपि मोक्षः ]
टीका : — जो आत्माको कर्ता ही देखते — मानते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि, लौकिक जनोंके मतमें परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्य करता है, और उन ( — लोकोत्तर भी मुनियों)के मतमें अपना आत्मा उन कार्यको करता है — इसप्रकार (दोनोमें) १अपसिद्धान्तकी समानता है । इसलिये आत्माके नित्य कर्तृत्वकी उनकी मान्यताके कारण, लौकिक जनोंकी भाँति, लोकोत्तर पुरुषों (मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता ।
भावार्थ : — जो आत्माको कर्ता मानते हैं, वे भले ही मुनि हो गये हों तथापि वे लौकिक जन जैसे ही हैं; क्योंकि, लोक ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोंने आत्माको कर्ता माना है — इसप्रकार दोनोंकी मान्यता समान हुई । इसलिये जैसे लौकिक जनोंको मोक्ष नहीं होती, उसीप्रकार उन मुनियोंकी भी मुक्ति नहीं है । जो कर्ता होगा वह कार्यके फलको भी अवश्य भोगेगा, और जो फलको भोगेगा उसकी मुक्ति कैसी ?।।३२१ से ३२३।।
अब आगेके श्लोकमें यह कहते हैं कि — ‘परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिये उनमें कर्ता-कर्मसम्बन्ध भी नहीं है; : —
श्लोकार्थ : — [परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्म- तत्त्वका सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे ] इसप्रकार क र्तृ- क र्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे, [तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका क र्तृत्व क हाँसे हो सकता है ?
भावार्थ : — परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, तब फि र उनमें १अपसिद्धान्त = मिथ्या अर्थात् भूलभरा सिद्धान्त ।