अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यन्ति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यन्ति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः, तथा यदि ज्ञान्यपि कथचिंद् [व्यवहारभाषितेन तु ] व्यवहारके वचनोंको ग्रहण करके [परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है’ [भणन्ति ] ऐसा क हते हैं, [तु ] परन्तु ज्ञानीजन [निश्चयेन जानन्ति ] निश्चयसे जानतेे हैं कि ‘[किञ्चित् ] कोई [परमाणुमात्रम् अपि ] परमाणुमात्र भी [न च मम ] मेरा नहीं है’ ।
[यथा ] जैसे [कः अपि नरः ] कोई मनुष्य [अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् ] ‘हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र’ [जल्पति ] इसप्रकार क हता है, [तु ] किन्तु [तानि ] वे [तस्य ] उसके [न च भवन्ति ] नहीं हैं, [मोहेन च ] मोहसे [सः आत्मा ] वह आत्मा [भणति ] ‘मेरे हैं’ इसप्रकार क हता है; [एवम् एव ] इसीप्रकार [यः ज्ञानी ] जो ज्ञानी भी [परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है’ [इति जानन् ] ऐसा जानता हुआ [आत्मानं करोति ] परद्रव्यको निजरूप क रता है, [एषः ] वह [निःसंशयं ] निःसंदेह अर्थात् निश्चयतः [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [भवति ] होता है ।
[तस्मात् ] इसलिये तत्त्वज्ञ [न मे इति ज्ञात्वा ] ‘परद्रव्य मेरा नहीं है’ यह जानकर, [एतेषां द्वयेषाम् अपि ] इन दोनोंका ( – लोक का और श्रमणका – ) [परद्रव्ये ] परद्रव्यमें [कर्तृव्यवसायं जानन् ] क र्तृत्वके व्यवसायको जानते हुए, [जानीयात् ] यह जानते हैं कि [दृष्टिरहितानाम् ] यह व्यवसाय सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषोंका है ।
टीका : — अज्ञानीजन ही व्यवहारविमूढ़ (व्यवहारमें ही विमूढ़) होनेसे परद्रव्यको ऐसा देखते — मानते हैं कि ‘यह मेरा है’; और ज्ञानीजन तो निश्चयप्रतिबुद्ध (निश्चयके ज्ञाता) होनेसे परद्रव्यकी कणिकामात्रको भी ‘यह मेरा है’ ऐसा नहीं देखते – मानते । इसलिये, जैसे इस जगतमें कोई व्यवहारविमूढ़ ऐसा दूसरेके गाँवमें रहनेवाला मनुष्य ‘यह ग्राम मेरा है’ इसप्रकार देखता – मानता हुआ मिथ्यादृष्टि ( – विपरीत दृष्टिवाला) है, उसीप्रकार यदि ज्ञानी भी किसी प्रकारसे