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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं
कुर्वाणो मिथ्याद्रष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा
लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसायः स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति
इति सुनिश्चितं जानीयात् ।
(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः ।
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।।२०१।।
व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार देखे – माने तो उस समय वह भी
निःसंशयतः अर्थात् निश्चयतः, परद्रव्यको निजरूप करता हुआ, मिथ्यादृष्टि ही होता है । इसलिये
तत्त्वज्ञ पुरुष ‘समस्त परद्रव्य मेरा नहीं है’ यह जानकर, यह सुनिश्चिततया जानता है कि — ‘लोक
और श्रमण — दोनोंको जो यह परद्रव्यमें कर्तृत्वका व्यवसाय है, वह उनकी सम्यग्दर्शनरहितताके
कारण ही है’ ।
भावार्थ : — जो व्यवहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वे — लौकिकजन
हों या मुनिजन हों — मिथ्यादृष्टि ही हैं । यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता
है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है ।।३२४ से ३२७।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं
सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध
किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ
[कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] क र्ताक र्मघटना नहीं होती — [मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन
और लौकि क जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको ( – वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अक र्ता देखो,
(यह श्रद्धामें लाओ कि — कोई किसीका क र्ता नहीं है, परद्रव्य परका अक र्ता ही है) ।२०१।
‘‘जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं;
इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है ।
’’ — इस अर्थका एवं आगामी गाथाओंका
सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —