कुर्वाणो मिथ्याद्रष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा
इति सुनिश्चितं जानीयात् ।
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः ।
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।।२०१।।
भावार्थ : — जो व्यवहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वे — लौकिकजन हों या मुनिजन हों — मिथ्यादृष्टि ही हैं । यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है ।।३२४ से ३२७।।
श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] क र्ताक र्मघटना नहीं होती — [मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन और लौकि क जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको ( – वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अक र्ता देखो, (यह श्रद्धामें लाओ कि — कोई किसीका क र्ता नहीं है, परद्रव्य परका अक र्ता ही है) ।२०१।
‘‘जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं; इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है ।’’ — इस अर्थका एवं आगामी गाथाओंका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —