Samaysar (Hindi). Kalash: 201.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं
कुर्वाणो मिथ्या
द्रष्टिरेव स्यात् अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा
लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसायः स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति
इति सुनिश्चितं जानीयात्
(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्
।।२०१।।
व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार देखेमाने तो उस समय वह भी
निःसंशयतः अर्थात् निश्चयतः, परद्रव्यको निजरूप करता हुआ, मिथ्यादृष्टि ही होता है इसलिये
तत्त्वज्ञ पुरुष ‘समस्त परद्रव्य मेरा नहीं है’ यह जानकर, यह सुनिश्चिततया जानता है कि‘लोक
और श्रमणदोनोंको जो यह परद्रव्यमें कर्तृत्वका व्यवसाय है, वह उनकी सम्यग्दर्शनरहितताके
कारण ही है’
भावार्थ :जो व्यवहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वेलौकिकजन
हों या मुनिजन होंमिथ्यादृष्टि ही हैं यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता
है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है ।।३२४ से ३२७।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं
सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध
किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ
[कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] क र्ताक र्मघटना नहीं होती
[मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन
और लौकि क जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको (वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अक र्ता देखो,
(यह श्रद्धामें लाओ किकोई किसीका क र्ता नहीं है, परद्रव्य परका अक र्ता ही है) ।२०१।
‘‘जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं;
इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है
’’ इस अर्थका एवं आगामी गाथाओंका
सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं :