Samaysar (Hindi). Gatha: 328-329 Kalash: 202.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४७५
(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म-
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः
।।२०२।।
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो ।।३२८।।
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो ।।३२९।।
श्लोकार्थ :(आचार्यदेव खेदपूर्वक क हते हैं कि :) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम्
स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे,
[अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप
पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म
कुर्वन्ति ] क र्मको क रते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ]
भावक र्मका क र्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं
भावार्थ :वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ
अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका
कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।
अब, ‘(जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है, उसका कर्ता कौन है ?’इस बातकी
भलीभाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है’ यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते
हैं :
मिथ्यात्व प्रकृति ही अगर, मिथ्यात्वि जो जीवको करे
तो तो अचेतन प्रकृति ही कारक बने तुझ मत विषे ! ।।३२८।।
अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको
तो तो बने मिथ्यात्वि पुद्गलद्रव्य, आत्मा नहिं बने ! ।।३२९।।