कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः ।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म-
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं ।
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो ।।३२८।।
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं ।
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो ।।३२९।।
श्लोकार्थ : — (आचार्यदेव खेदपूर्वक क हते हैं कि :) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम्
स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे,
[अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म
कुर्वन्ति ] क र्मको क रते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ]
भावक र्मका क र्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं ।
भावार्थ : — वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ
अज्ञानी ( – मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका
कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।
अब, ‘(जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है, उसका कर्ता कौन है ?’ — इस बातकी
भलीभाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है’ यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते
हैं : —
मिथ्यात्व प्रकृति ही अगर, मिथ्यात्वि जो जीवको करे ।
तो तो अचेतन प्रकृति ही कारक बने तुझ मत विषे ! ।।३२८।।
अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको ।
तो तो बने मिथ्यात्वि पुद्गलद्रव्य, आत्मा नहिं बने ! ।।३२९।।