मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः ।
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।
श्लोकार्थ : — (आचार्यदेव खेदपूर्वक क हते हैं कि :) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म कुर्वन्ति ] क र्मको क रते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भावक र्मका क र्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं ।
भावार्थ : — वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी ( – मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।
अब, ‘(जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है, उसका कर्ता कौन है ?’ — इस बातकी भलीभाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है’ यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हैं : —