रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः ।
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।।
होता है — यह परमार्थ है । अभेददृष्टिमें तो जीव शुद्धचेतनामात्र ही है, किन्तु जब वह कर्मके
परिणामीकी भेददृष्टिमें अपने अज्ञानभावरूप परिणामोंका कर्ता जीव ही है । अभेददृष्टिमें तो
श्लोकार्थ : — [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो क र्म (अर्थात् भावक र्म) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसीके द्वारा किये बिना नहीं हो सकता । [च ] और [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसे भी नहीं है कि वह (भावक र्म) जीव और प्रकृ ति दोनोंकी कृ ति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात् ] क्योंकि यदि वह दोनोंका कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृ तिको भी अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा । [एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह (भावक र्म) एक प्रकृ तिकी कृ ति ( – अके ली प्रकृ तिका कार्य – ) भी नहीं है, [अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृ तिका तो अचेतनत्व प्रगट है (अर्थात् प्रकृ ति तो अचेतन है और भावक र्म चेतन है) । [ततः ] इसलिये [अस्य कर्ता जीवः ] उस भावक र्मका क र्ता जीव ही है [च ] और [चिद्-अनुगं ] चेतनका अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतनके साथ अन्वयरूप ( – चेतनके परिणामरूप – ) ऐसा [तत् ] वह भावक र्म [जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही क र्म है, [यत् ] क्योंकि [पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावक र्म पुद्गलका क र्म नहीं हो सकता) ।
भावार्थ : — चेतनकर्म चेतनके ही होता है; पुद्गल जड़ है, उससे चेतनकर्म कैसे हो सकता है ? ।२०३।
अब आगेकी गाथाओंमें, जो भावकर्मका कर्ता भी कर्मको ही मानते हैं उन्हें समझानेके लिए स्याद्वादके अनुसार वस्तुस्थिति कहेंगे; पहले उसका सूचक काव्य कहते हैं : —