कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता ।
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।।२०४।।
श्लोकार्थ : — [कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक (सर्वथा एकान्तवादी) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] क र्मको ही क र्ता विचार कर [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके क र्तृत्वको उड़ाकर, ‘[एषः आत्मा कथंचित् क र्ता ] यह आत्मा क थंचित् क र्ता है’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा क हनेवाली अचलित श्रुतिको कोपित क रते हैं ( – निर्बाध जिनवाणीकी विराधना क रते हैं); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये ] जिनकी बुद्धि तीव्र मोहसे मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकोंके ज्ञानकी संशुद्धिके लिये (निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] वस्तुस्थिति क ही जाती है — [स्याद्वाद- प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया ] जिस वस्तुस्थितिने स्याद्वादके प्रतिबन्धसे विजय प्राप्त की है (अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमसे निर्बाधतया सिद्ध होती है) ।
भावार्थ : — कोई एकान्तवादी सर्वथा एकान्ततः कर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं । उन पर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वादसे वस्तुस्थितिको निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्माको कथंचित् कर्ता कहती है । आत्माको अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियोंकी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वसे ढक गई है; उनके मिथ्यात्वको दूर करनेके लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है, वह निम्नलिखित गाथाओंमें कहते हैं ।२०४।
‘आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्ता भी है’ इस अर्थकी गाथायें अब कहते हैं : —