कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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तम्हा ण को वि जीवो वधादओ अत्थि अम्ह उवदेसे ।
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि इदि भणिदं ।।३३९।।
एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा ।
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ।।३४०।।
अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि ।
एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स ।।३४१।।
अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि ।
ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य कादुं जे ।।३४२।।
जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु ।
तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।।३४३।।
अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं ।
तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ।।३४४।।
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इसी रीत ‘कर्महि कर्मको हनता’ — कहा है शास्त्रमें ।
इससे न को भी जीव है हिंसक जु हम उपदेशमें’’ ।।३३९।।
यों सांख्यका उपदेश ऐसा, जो श्रमण वर्णन करे ।
उस मतसे सब प्रकृति करे, जीव तो अकारक सर्व है ! ।।३४०।।
अथवा तुँ माने ‘आतमा मेरा स्वआत्माको करे’ ।
तो यह जो तुझ मंतव्य भी मिथ्या स्वभाव हि तुझ अरे ।।३४१।।
जीव नित्य है त्यों, है असंख्यप्रदेशि दर्शित समयमें ।
उससे न उसको हीन, त्योंहि न अधिक कोई कर सके ।।३४२।।
विस्तारसे जीवरूप जीवका, लोकमात्र प्रमाण है ।
क्या उससे हीन रु अधिक बनता ? द्रव्यको कैसे करे ? ।।३४३।।
माने तुँ — ‘ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभाव स्थित रहे’ ।
तो यों भि यह आत्मा स्वयं निज आतमाको नहिं करे ।।३४४।।