गाथार्थ : — ‘‘[कर्मभिः तु ] क र्म [अज्ञानी क्रियते ] (जीवको) अज्ञानी क रते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः ज्ञानी ] कर्म (जीवको) ज्ञानी क रते हैं, [कर्मभिः स्वाप्यते ] क र्म सुलाते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः जागर्यते ] क र्म जगाते हैं, [कर्मभिः सुखी क्रियते ] क र्म सुखी क रते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः दुःखी क्रियते ] क र्म दुःखी क रते हैं, [कर्मभिः च मिथ्यात्वं नीयते ] क र्म मिथ्यात्वको प्राप्त कराते हैं [च एव ] और [असंयमं नीयते ] क र्म असंयमको प्राप्त कराते हैं, [कर्मभिः ] क र्म [ऊ र्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च ] ऊ र्ध्वलोक , अधोलोक और तिर्यग्लोक में [भ्राम्यते ] भ्रमण कराते हैं, [यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं ] जो कुछ भी जितना शुभ और अशुभ है वह सब [कर्मभिः च एव क्रियते ] क र्म ही क रते हैं । [यस्मात् ] यतः [कर्म करोति ] क र्म क रता है, [कर्म ददाति ] क र्म देता है, [हरति ] क र्म हर लेता है — [इति यत्किञ्चित् ] इसप्रकार जो कुछ भी करता वह क र्म ही क रता है, [तस्मात् तु ] इसलिये [सर्वजीवाः ] सभी जीव [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति ] अकारक (अक र्ता) सिद्ध होते हैं ।
और, [पुरुषः ] पुरुषवेदक र्म [स्त्र्यभिलाषी ] स्त्रीका अभिलाषी है [च ] और [स्त्रीकर्म ] स्त्रीवेदक र्म [पुरुषम् अभिलषति ] पुरुषकी अभिलाषा क रता है — [एषा आचार्यपरम्परागता ईदृशी तु श्रुतिः ] ऐसी यह आचार्यकी परम्परासे आई हुई श्रुति है; [तस्मात् ] इसलिये [अस्माकम् उपदेशे तु ] हमारे उपदेशमें [कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [अब्रह्मचारी न ] अब्रह्मचारी नहीं है,