कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५१५
(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो
नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित् ।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः ।।२१५।।
(मन्दाक्रान्ता)
शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेष-
मन्यद्द्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः ।
ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि-
र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ।।२१६।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध
द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [एक-
द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति ] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य
रहता हुआ क दापि भासित नहीं होता । [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ]
ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है । [जनाः ] जब कि ऐसा है
तब फि र लोग [द्रव्य-अन्तर-चुम्बन-आकुल-धियः ] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी
मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात् ] तत्त्वसे (शुद्ध स्वरूपसे) [किं च्यवन्ते ] क्यों
च्युत होते हैं ?
भावार्थ : — शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य
द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता । ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी
स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते । ऐसा
होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत
होते हैं कि ‘ज्ञानको परज्ञेयोंके साथ परमार्थ सम्बन्ध है’; यह उनका अज्ञान है । उन पर करुणा
करके आचार्यदेव कहते हैं कि — यह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? ।२१५।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका)