ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम् ।
भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।।२१७।।
स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस ( – ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ?
इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयको सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका
कदापि नहीं होता ।
भावार्थ : — शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता । जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है, किन्तु पृथ्वी चाँदनीकी किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है, किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र भी नहीं होता । आत्माका ज्ञानस्वभाव है, इसलिये उसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकता है, किन्तु ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता ।२१६।
श्लोकार्थ : — [तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वन्द्व तब तक उदयको प्राप्त होता है [यावद् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्वको प्राप्त न हो । [तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत- अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञान-भावको दूर क रके, ज्ञानरूप हो — [येन भाव-अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति ] कि जिससे भाव-अभाव(राग-द्वेष)को रोकता हुआ पूर्णस्वभाव (प्रगट) हो जाये ।
भावार्थ : — जब तक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तब तक राग-द्वेष उत्पन्न होता है; इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको प्राप्त हो जाये । यह प्रार्थना है ।२१७।