कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए ।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ।।३६६।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे ।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि ।।३६७।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए ।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु ।।३६८।।
णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स ।
ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो ।।३६९।।
जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु ।
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु ।।३७०।।
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न है, आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुण परद्रव्योंमें नहीं है’
ऐसा जाननेके कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति राग नहीं होता; और रागद्वेषादि जड़ विषयोंमें भी
नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं । — इस अर्थकी गाथाएँ अब कहते
हैं : —
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन विषयमें ।
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन विषयमें ? ।।३६६।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कर्ममें ।
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कर्ममें ? ।।३६७।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कायमें ।
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कायमें ? ।।३६८।।
है ज्ञानका, सम्यक्तका, उपघात चारितका कहा ।
वहाँ और कुछ भी नहिं कहा उपघात पुद्गलद्रव्यका ।।३६९।।
जो जीवके गुण हैं नियत वे कोई नहिं परद्रव्यमें ।
इस हेतुसे सद्दृष्टि जीवको राग नहिं है विषयमें ।।३७०।।