Samaysar (Hindi). Gatha: 366-370.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५१७
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ।।३६६।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि ।।३६७।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु ।।३६८।।
णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स
ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो ।।३६९।।
जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु ।।३७०।।
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न है, आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुण परद्रव्योंमें नहीं है’
ऐसा जाननेके कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति राग नहीं होता; और रागद्वेषादि जड़ विषयोंमें भी
नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं
इस अर्थकी गाथाएँ अब कहते
हैं :
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन विषयमें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन विषयमें ? ।।३६६।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कर्ममें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कर्ममें ? ।।३६७।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कायमें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कायमें ? ।।३६८।।
है ज्ञानका, सम्यक्तका, उपघात चारितका कहा
वहाँ और कुछ भी नहिं कहा उपघात पुद्गलद्रव्यका ।।३६९।।
जो जीवके गुण हैं नियत वे कोई नहिं परद्रव्यमें
इस हेतुसे सद्दृष्टि जीवको राग नहिं है विषयमें ।।३७०।।